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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/43 स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो स्वयं किए निष्फल होते ॥
- जन्म-मरण एकहि करे, सुख-दुःख वेदे एक।
नरक गमन भी एकला, मोक्ष जाय जीव एक॥ “यहाँ अकेला मेरा आत्मा हीशरण है।"- इसप्रकार एकत्व भावना द्वारा अन्तरंग स्वभाव की गहराई में उतरकर उसने पुन: सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। इतना ही नहीं, उससमय और भी अनेक नारकी जीव शान्ति एवं सम्यक्त्व को प्राप्त हुए और अति उपकार बुद्धि से हाथ जोड़कर धरणेन्द्र को नमस्कार करने लगे।अपना प्रयोजन पूर्ण हुआजानकर वेधरणेन्द्र भी अपने स्थान पर चले गये।
देखो तो सही ! जीवों के परिणामों की विचित्रता !! त्रिखण्ड का राजवैभव भोगने में अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों साथ थे; तथापि एक तो विशुद्ध परिणाम के कारण स्वर्ग गया और दूसरा संक्लेश परिणाम के कारण नरक गया। नरक में भी पुन: सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया। दो भाइयों में से एक असंख्यात वर्षों तक स्वर्ग में और दूसरा असंख्यात वर्षों तक नरक में, तथापि गहरी अन्तर्दृष्टि से देखें तो दोनोंजीवसम्यग्दृष्टि हैं, दोनोंचतुर्थगुणस्थानवर्ती हैं और सम्यक्त्व सुख दोनों को समान है। दोनों के संयोगों में तथा औदयिक भाव मेंमहान अन्तर होने पर भीस्वभावदशा की इस समानता को भेदज्ञानीजीव हीजान सकते हैं। उदय और ज्ञान कोजो भिन्न देख सकते हैं वे ही ज्ञानियों की अन्तरदशा को पहिचान सकते हैं।
संचालक-धन्यवाद जिनेश! अब मैं आ. गुरुजी से निवेदन करता हूँ कि वे अपना मार्गदर्शन देने की कृपा करें।
गुरुजी-जिनेश ने बहुत ही मार्मिक एवं शिक्षाप्रद कहानी सुनाई। मैं भी इसी सन्दर्भ में कहना चाहूँगा कि आप सभी अपने अवकाश काल में अन्यायअनीति-अभक्ष्य से सदा दूर रहें और इस भेदज्ञान की भावना को अपने जीवन में सदा भाते रहें तथा शीघ्र ही मोक्षमार्ग प्रशस्त करें। - यही मेरी भावना है।
संचालक - (आज्ञा से) बोलो, महावीर स्वामी की जय !