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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/14 मरण होगा, परन्तु विधर्मी जीवन साथी के साथ तो पल-पल की जिन्दगी भी मौत से वद्तर होगी। अरे रे ! आप पिता होकर भी मेरा अनिष्ट करने के लिए तैयार हो गये हो। क्या इस समय कोई मेरी रक्षा नहीं करेगा ? – ऐसा कहते हुए बंधुश्री माँ के पास जाकर रुदन करने लगी। ___ बंधुश्री की धर्म के प्रति श्रद्धा देखकर गुणपाल सेठ कहता है कि - "हे पुत्री ! तू धन्य है, आज मेरा जीवन सफल हुआ। तेरी जैसी पुत्री पाकर मैं बहुत गौरव का अनुभव कर रहा हूँ। बेटी ! मुझे तो मात्र तेरे विचार जानना थे, इसमें तू पूर्णरूपेण सफल हुई है। बेटी ! मैं जबतक जीवित हूँ, तबतक तेरा विवाह विधर्मी के साथ कभी नहीं होने दूंगा।"
गुणपाल सेठ विचार करने लगे “कि यहाँ रहने से राजा बलपूर्वक मेरी कन्या के साथ विवाह करने की कोशिश करेगा
और राजाज्ञा उल्लंघन करने से दण्ड भी भोगना पड़ेगा। अतः यह नगर छोड़कर चले जाने से ही पुत्री व धर्म की रक्षा हो सकेगी।" - इसप्रकार विचार करके गुणपाल सेठ अपनी एक अरब आठ करोड़ की सम्पत्ति छोड़कर पुत्री एवं परिवार को लेकर रातों-रात अपने नगर को छोड़कर चले गये। __ जब राजा को ज्ञात हुआ कि गुणपाल सेठ अपनी समस्त सम्पत्ति ज्यों की त्यों छोड़कर चले गये हैं तो राजा विचारता है कि उस धर्मात्मा ने मुझ पापी, कुकर्मी को कन्या देना उचित नहीं समझा; इस कारण यहाँ से चुपचाप रातोंरात अपनी एक अरब आठ करोड़ की सम्पत्ति छोड़कर चले गये। अहो ! वास्तव में दिगम्बर जैनधर्म ही जीवों का कल्याण करने वाला है। मैंने कुधर्म का सेवन करके अपना जीवन बर्बाद किया है। इस प्रकार विचार करने पर राजा की बुद्धि/रुचिकुधर्म से छूट गई और उसने जिनधर्मानुयायी सेठ गुणपाल को खोजने के लिये चारों तरफ अपने सैनिक सादा भेष में भेज दिये।
-नयसेनाचार्य विरचित धर्मामृत के आधार पर