Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/68 बाबूजी मैं एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाता हूँ। मैं तो अनपढ़ आदमी हूँ। प्रो. साहब ने कहा - तेरी जिन्दगी तो बेकार पानी ही पानी में चली गई। इस तरह नाव बढ़ती हुई जा रही थी कि अनायास तूफानी हवा चलने लगी, जिससे नाव डगमगा उठी। नाविक ने कहा - बाबूजी आपको तैरना आता है ? प्रो. साहब ने कहा – भाई ! मुझे तैरना नहीं आता। नाविक कहने लगा-बाबूजी, आपकी सारी विद्याएँ यहाँ कुछ काम नहीं आयेंगी। “अब आपकी जिन्दगी जरूर पानी में चली जायेगी।" - इतना कहकर नाविक ने पानी में छलांग लगा दी और तैरकर किनारे लग गया। प्रो. साहब नदी में डूबकर प्राणों से हाथ धो बैठे। इसीप्रकार जो भले ही अनेक शास्त्रों का ज्ञाता हो, किन्तु यदि उसे दुःखों से पार लगानेवाली अध्यात्म की विद्या नहीं आती है तो सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान चर्तुगति के दुःखों से नहीं बचा सकता है। कहा भी है - आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान । विश्वशान्ति का मूल है, वीतराग-विज्ञान॥ क्योंकि दुनियादारी के ज्ञान से अपना प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। प्रत्येक प्राणी का प्रयोजन सुख प्राप्त करना है। सुख जड़ पदार्थों के पास है ही नहीं और जिन अरहंत सिद्ध भगवान को शाश्वत सुख-प्राप्त है, वे अपना सुख हमें दे नहीं सकते हैं। उन्होंने तो मार्ग बता दिया है, जो उस पर चलता है, वह शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है। वह सुखगुण आत्मा में है, अतः जो सम्यग्ज्ञान की ज्योति जलाकर आत्मा में उसकी खोज करता है, उसे प्राप्त हो जाता है। इसीलिए धर्ममार्ग में आत्मज्ञान की बड़ी महिमा है। वह आत्मज्ञान अध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन मनन और अवगाहन से प्राप्त होता है। कहा भी है - द्वादशांग का सार है, निश्चय आतमज्ञान। आतम के जाने बिना, होगा नहीं कल्याण ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84