Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 20
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 15/18 सर्प को धन पर बैठा हुआं देखकर लुब्धक के बड़े पुत्र गरुड़दत्त को बहुत गुस्सा आया। उसने उसी समय उसे मार दिया। मरकर वह चौथे नरक में गया, जहाँ पापकर्मों का निरन्तर महाकष्ट भोगना पड़ता है। देखो, लोभ के फलस्वरूप जीवनभर कठिन परिश्रम करके कमाये हुए धन का न तो वह लुब्धक स्वयं भोग कर सका और ना ही उसके कारण वह परिवार को ही भोगने मिला तथा ना ही वह उस धन का उपयोग किसी परोपकार या धार्मिक अनुष्ठान में कर सका। बल्कि उसके लोभ में मरकर सर्प हुआ और अन्त में नरक के भयंकर दुःखों में जा गिरा । अतः सज्जन पुरुषों को लोभ ही नहीं वरन् सभी कषायों को हालाहल जहर की भाँति छोड़ देना चाहिए; क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभादि के वश होकर यह जीव अनन्त काल तक दुःख भोगता है। अतः सुखाभिलाषियों को लोभादि का परित्याग करके जिनेन्द्र भगवान के उपदेश अनुसार धर्म का आचरण करना चाहिये; क्योंकि धर्म सर्व सुखदायक है, धर्म मोक्षप्रदायक है। - आराधना कथाकोष में से संक्षिप्त सार शरण किसकी ? प्रत्येक जैन प्रतिदिन बोलता है - लोक में चार ही मंगल हैं, चार ही उत्तम हैं और मैं इन चार - अरहन्त सिद्ध साधु और धर्म की ही शरण लेता हूँ; क्योंकि इन्होंने ही अपने संकटों का हरण किया था और उनके संकट दूर करने वाला अन्तिम शरण्यभूत धर्म है। जिस-जिसने धर्म (आत्मस्वभाव) की शरण ली, उनके ही सब संकट दूर हो गए इसलिए अन्य की शरण में जाना महा-मूर्खता है । 'अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम' भगवान आपको छोड़कर कोई दूसरा शरण योग्य नहीं है। यह कितना बड़ा अपने साथ, अपने धर्म तथा समाज के साथ छल है कि चत्तारि शरणं कहते जावें और इन कुदेवों को भी शरण मानते रहें । - ज्ञानदीपिका से साभार

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