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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/78 सम्राट सिकन्दर की (25) कल्याणमुनि से भेंट ! - भारतवर्ष पर आक्रमण करते समय सिकन्दर ने दिगम्बर जैन साधुओं के उत्कृष्ट चारित्र और कठोर तपस्या के विषय में बहुत प्रशंसा सुनी थी। इससे उसके हृदय में नग्न जैन साधुओं के दर्शन करने की उत्कण्ठा बहुत प्रबल हो गई।
ईसवी सन् पूर्व 326 के नवम्बर मास में सिकन्दर ने कटक के निकट सिन्धु नदी को पार किया, तब वह तक्षशिला में आकर ठहरा । उस समय उसे ज्ञात हुआ कि यहाँ पर अनेक नग्न साधु एकान्त स्थान में रहकर तपस्या करते हैं।
सिकन्दर ने अपना अन्शक्रतस नाम का एक अत्यन्त चतुर दूत उन नग्न . दिगम्बर जैन साधुओं के पास इस कार्य के साथ भेजा कि “एक साधु को आदर के साथ मेरे पास ले आओ।" ___ वह दूत जैन साधुओं/जैन मुनियों के निकट पहुँचा। उसने साधु-संघ के आचार्य से कहा कि आचार्य महाराज ! आपको बधाई है। शक्तिमान देवता यानी परमेश्वर का पुत्र सिकन्दर जो कि समस्त मनुष्यों का राजा है, आपको अपने पास बुलाता है, यदि आप उसका निमन्त्रण स्वीकार करके उसके पास चलेंगे तो वह आपको बहुत पारितोषिक प्रदान करेगा। यदि आप निमन्त्रण
अस्वीकार करेंगे, तो वह आपका सिर काट लेगा। - श्रमण साधुसंघ के आचार्य दौलासम सूखी घास पर लेटे हुए थे। उन्होंने लेटे ही सिकन्दर की बात सुनी और मन्द-मुस्कान के साथ करके अन्शक्रतस को तिरस्कार पूर्वक उत्तर दिया। ___ “सबसे श्रेष्ठ राजा – ईश्वर कभी बलात् (जबरदस्ती) किसी की हानि नहीं करता और न वह प्रकाश, जीवन, जल, मानवीय शरीर तथा आत्मा का. बनाने वाला है, न वह इनका संहारक (विनाशक) है। सिकन्दर देवता नहीं है, क्योंकि उसकी एक दिन मृत्यु अवश्य होगी। वह जो कुछ पारितोषिक देना चाहता है वे सभी पदार्थ मेरे लिए निरर्थक हैं, मैं तो घास पर सोता हूँ, ऐसी कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता जिसकी रक्षा की मुझे चिन्ता करनी पड़े। यदि मेरे पास सुवर्ण या अन्य कोई सम्पत्ति होती तो मैं निश्चिन्त नींद न ले सकता।