Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 28
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/26 अनन्तवीर्य के प्रति तीव्र स्नेह के कारण वे संयम धारण न कर सके। ऐसा महान वैराग्य प्रसंग प्रत्यक्ष देखकर भी अनन्तवीर्य वासुदेव को (पूर्व के निदानबन्ध के मिथ्या संस्कारवश) किंचित् भी वैराग्य नहीं हुआ; उसका जीवन दिन-रात विषय भोगों में ही आसक्त रहा। तीव्र विषयासक्ति के कारण सदा आर्त्त-रौद्र ध्यान में वर्तता हुआ वह पंचपरमेष्ठी को भी भूल गया। . अरे ! जिस धर्मानुराग के कारण वह ऐसे पुण्यभोगों को प्राप्त हुआ था, उस धर्म को ही वह भूल गया । अपने भाई के साथ अनेकों बार वह प्रभु के समवसरण में भी जाता और धर्मोपदेश भी सुनता; परन्तु उसका चित्त तो विषय-भोगों से रंगा हुआ था। अरेरे! जिसका चित्त ही मैला हो उसके लिए परमात्मा का संयोग भी क्या कर सकेगा? तीव्र आरम्भ परिग्रह के कलुषित भाव के कारण वह अनन्तवीर्य रौद्रध्यानपूर्वक मरकर नरक में गया। ____ वह अर्धचक्रवर्ती का जीव महाभयंकर नरक के बिल में औंधे मुँह नीचे की कर्कशभूमि पर जा गिरा । नरकभूमि के स्पर्शमात्र से उसे इतना भयंकर दुःख हुआ कि पुन: पाँच सौ धनुष ऊपर उछला और फिर नीचे गिरा, गिरते ही खण्ड-खण्ड हो गया, जिससे उसे असह्य शारीरिक वेदना हुई, पुनः शरीर पारे की भाँति जुड़ गया। उसे देखते ही दूसरे हजारों नारकी आकर उसे मारने लगे। ___ - ऐसे भयंकर दुःख देखकर उसे विचार आया कि “अरे ! मैं कौन हूँ ? कहाँ आकर पड़ा हूँ ? मुझे अकारण ही इतना दुःख देनेवाले यह क्रूर जीव कौन हैं ? मुझे क्यों इतनी भयंकर पीड़ा दी जा रही है ? अरेरे! मैं कहाँ जाऊँ ? अपना दुःख किससे कहूँ ? यहाँ मुझे कौन बचायेगा ? भीषण ताप और भूख-प्यास के कारण मुझे मृत्युसे भी अधिक वेदना हो रही है। मुझे बहुत प्यास लगी है; लेकिन पानी कहाँ मिलेगा?" - इसप्रकार दुःखों से चिल्लाता हुआ वह जीव इधर से उधर भटकने लगा। वहाँ उसने कुअवधिज्ञान से जाना कि अरे! यह तो नरकभूमि है, पापों के फल से मैं नरकभूमि में आ पड़ा हूँ और यह परम-अधर्मी असुर देव अन्य नारकियों को पूर्व की याद दिलाकर भयंकर दुःख देने के लिए प्रेरित कर मुझे मेरे पापों का फल चखा रहे हैं। अरेरे! दुर्लभ मनुष्यभव विषयभोगों में

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