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तैत्तिरीयोपनिपट
[ वल्ली १
काम्यप्रतिपिद्धयोरनारम्भा- पूर्व-काम्य और निषिद्ध कर्मो
| का आरम्भ न करनेसे, प्रारब्ध कमोंमीमांतकमत- दारब्धस्य चोप
का भोगद्वारा क्षय हो जानेसे तथा समीक्षा भोगेन क्षयान्नित्या-नित्यकर्मकि अनुष्टानसे प्रत्यवायर्याका नुष्ठानेन प्रत्यवायाभावादयत्नत | | अभाव हो जानसे अनायास ही
अपने आत्मामें स्थित होनारूप मोक्ष एव स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः।
प्राप्त हो जायगा; अथवा 'स्वर्ग' अथवा निरतिशयायाः प्रीतेः शब्दवाच्य आत्यन्तिक प्रीति कर्मस्वर्गशब्दवाच्यायाः कर्महेतु
| जनित होनेके कारण कमसे ही
| मोक्ष हो सकता है यदि ऐसा माना त्वात्कर्मभ्य एव मोक्ष इति चेत् । जाय तो? न; कर्मानेकत्वात् । अने- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि कर्म
तो बहुत-से हैं। अनेकों जन्मान्तरों में कानि ह्यारब्धफलान्यनारब्ध
किये हुए ऐसे अनेकों विरुद्ध फलवाले फलानि चानेकजन्मान्तरकृतानि | कर्म हो सकते हैं जिनमेंसे कुछ तो विरुद्धफलानि कर्माणि सम्भवन्ति। फलोन्मुख हो गये हैं और कुछ अभी
फलोन्मुख नहीं हुए हैं। अतः उनमें अतस्तेष्वनारब्धफलानामेकसि
जो कर्म अभी फलोन्मुख नहीं हुए ञ्जन्मन्युपभोगक्षयासंभवाच्छेप- | हैं उनका एक जन्ममें होक्षय होना कर्मनिमित्तशरीरारम्भोपपत्तिः। असा
| असम्भव होनेके कारण उन अवशिष्ट
कोंके कारण दूसरे शरीरका कर्मशेषसद्भावसिद्धिश्च "तद्य इह ! आरम्भ होना सम्भव ही है । रमणीयचरणा" (छा० उ०
| "इस लोकमें जो शुभ कर्म करनेवाले ५। १०१७) "ततः शेपेण" [उपभोग किये कमोंसे ] बचे हुए
हैं [उन्हें शुभयोनि प्राप्त होती है ]" (आ०५० २।२।२।३, गो० | कर्मोद्वारा [जीवको आगेका शरीर