Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 31
________________ नयचक्रसार हि० प्र० जाय कि जीव और पुद्गल एक स्थान मे नहीं रहते किन्तु चलनादि भाव को प्राप्त होते है. तो उसकी अपेक्षा कारण १ धर्मास्ति काय २ अधर्मास्तिकाय ये दो द्रव्य भी मानने चाहिये. कितनेक संसार स्थिति का कर्ता इश्वर को मानते हैं. वे भी अनभिज्ञ हैं. जो निर्मल रागद्वेष रहित ऐसे परमेश्वर परके सुख दुःख का कर्ता कैसे हो सकता है ! कोई परमेश्वर की इच्छा कहते हैं. सो इच्छा तो अधूरे को होती है. परिपूर्ण को नहीं होती और कोई लीला मात्र कहते है. सो लीला तो अजाण या अधूरा या अपना आनन्द अपने पास न हो वह कर्ता है परन्तु जो संपूर्ण चिदानन्दघन है उस को लीला कैसे घट सक्ती है ? मीमांसादि पांच भूत कहत है. उसमें भी चार भूत तो जीव पुद्गल के संबंध से उत्पन्न हुवे है. और आकाश द्रव्य है वह लोकालोक भिन्न पदार्थ है इस तरह असत्यपने का निराकरण कर के आगम प्रमाण से और कार्यादि के अनुमान से द्रव्य छे मानना युक्तियुक्त है. । तत्र पश्चानाम् प्रवेशपिंडत्वात् अस्तिकायत्वं । कालस्य प्रवेशाभावात् अस्तिकायता नास्ति, तत्र काल उपचारत एवं द्रव्यं न तु वस्तु वृत्या ।। अर्थ-उन छे द्रव्यों मे पांच सप्रदेशी होने से अस्तिकाय है और काल द्रव्य को प्रदेश के अभाव से अस्तिकाय नहीं कहा है. वह उपचार मात्र से द्रव्य है वस्तुवृत्ति से नहीं.

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