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न्यायतीर्थ मुनि न्यायविजयजी कृत
जैनदर्शन से स्याद्वाद.
स्याद्वादका अर्थ है-वस्तुका भिन्न भिन्न दृष्टि-बिंदुओंसे विचार करना, देखना या कहना । एक ही वस्तुमें अमुक अमुक अपेक्षासे भिन्न भिन्न धर्मोको स्वीकार करनेका नाम ' स्याद्वाद' है । जैसे एक ही पुरुषमें पिता, पुत्र, चचा, भतीजा, मामा, भानेज आदि व्यवहार माना जाता है, वैसे ही एक ही वस्तुमें अनेक धर्म माने जाते हैं । एक ही घटमें नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूपसे दिखाई देते हुए धर्मोको अपेक्षा दृष्टिसे स्वीकार करनेका नाम ' स्याद्वाद दर्शन ' है।
___ एक ही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र, अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता, अपने भतीजे और भानजेकी अपेक्षा चचा और मामा एवं अपने चचा और मामाकी अपेक्षा भतीजा और भाना होता है । प्रत्येक मनुष्य जानता है कि इस प्रकार परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे, एक ही मनुष्य में स्थित रहती हैं। इसी तरह नित्यत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म भी एक ही घटमें भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे क्यों नहीं माने जा सकते हैं।
पहिले इस बातका विचार करना चाहिए कि 'घट ' क्या