Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 127
________________ (१०८) नयचक्रसार हि० अ० भेद हैं, ( १ ) शुद्धव्यवहार ( २ ) अशुद्धव्यवहार. शुद्धव्यवहार के दो भेद ( १) सब द्रव्य की स्वरूपशुद्ध प्रवृत्ति जैसे-धर्मास्तिकाय की चलन सहकारिता, अधर्मास्तिकाय की स्थिरसहकारिता और जीव की ज्ञायकता इत्यादि वस्तुगत शुद्धव्यवहार है. (२) द्रव्य की उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिये रत्नत्रयी, शुद्धता, गुणश्रेणी विषयक श्रेण्यारोहणरूप साधन को शुद्धव्यवहार कहते हैं। अशुद्ध व्यवहार के दो भेद हैं. ( १ ) सद्भूत (२) असद्भूत जिस क्षेत्रमें अवस्था अभेद से रहे हुवे जो ज्ञानादि गुण उन को परस्पर भेद से कहना यह सद्भूत व्यवहार हैं । तथा में क्रोधी, में मानी, में देवता, में मनुष्य इत्यादि यह अशुद्ध व्यवहार है। जिस हेतु के परिणमन से देवपना प्राप्त किया वह देवगति विपाकी कर्म प्रकृती का उदयरूप परभाव है. जिसको यथार्थ ज्ञान विना ज्ञानशून्यजीव एकत्वरूप से मानता है इसी अशुद्धता के कारण अशुद्ध व्यवहार कहा इसके भी दो भेद हैं. ( १ ) संश्लेषित अशुद्धव्यवहार. यथा-शरीर मेरा और में शरीरी इत्यादि (२) असंश्लेषित असद्भूतव्यवहार. जैसे-पुत्र मेरा धनादि मेरा इत्यादि. तथा संश्लेषितअसद्भूतव्यवहार के दो भेद हैं. उपचरित, अनुपचरित.। विशेषावश्यक भाष्य में व्यवहार नय के दो भेद कहे हैं. (१) विभजनविभागरूप व्यवहार ( २ ) प्रवृत्तिव्यवहार. । प्रवृत्तिरूप व्यवहार के तीन भेद (१) वस्तु प्रवृत्ति (२) साधनप्रवृत्ति (३) लौकिक प्रवृत्ति । साधनप्रवृत्ति के तीन भेद. (१) अरिहन्त

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