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सप्तभंगी विकलोदशः
(११) चार वचन-प्रकार बताये गये। उनमें मूल तो प्रारंभके दो ही हैं। पिछले दो वचन-प्रकार प्रारंभके दो वचन-प्रकारके संयोगसे उत्पन्न हुए हैं । "कथंचित्-अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है।" " कथंचित-अमुक अपेक्षासे घट नित्य ही है।" ये प्रारंभके दो वाक्य जो अर्थ बताते हैं वही अर्थ तीसरा वचनप्रकार क्रमशः बताता है; और उसी अर्थको चौथा वाक्य युगपतएक साथ बताता है। इस. चौथे वाक्य पर विचार करनेसे यह समझमें आ सकता है कि, घट किसी अपेक्षासे प्रवक्तव्य भी है। अर्थात् किसी अपेक्षासे घटमें 'अवक्तव्य' धर्म भी है; परन्तु घटको कमी एकान्त अवक्तव्य नहीं मानना चाहिए । यदि ऐसा मानेंगे तो घट जो अमुक अपेक्षासे अनित्य और अमुक अपेक्षासे नित्य रूपसे अनुभवमें आता है, उसमें बाधा आ जायगी । अतएव उपरके चारों वचन-प्रयोगोंको ' स्यात् ' शब्दसे युक्त, अर्थात् कथंचित्-अमुक अपेक्षासे, समझना चाहिए । ---इन चार वचनप्रकारोंसे अन्य तीन वचन-प्रयोग भी उत्पन्न किये जा सकते हैं।
पांचवा वचनप्रकार--" अमुक अपेक्षासे घट अनित्य होनेके साथ ही प्रवक्तव्य भी हैं।" नहीं कहे जा सकें ऐसे अनित्यत्व-नित्यत्व धर्मोको ‘अवक्तव्य' शब्हसे भी कथन नहीं हो सकता है । किन्तु वे, धर्भ मुख्यतया एक ही साथ नहीं कहे जा सकते हैं, इसलिए वस्तुमें 'भवक्तव्य' नामका धर्भ प्राप्त होता है, कि जो 'अवतव्य' धर्म प्रवक्तव्य' शब्दसे कहा जाता है। .