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नयचक्रसार हि० अ० वे उत्तर सामान्य स्वभाव अनन्त है. तथापि अनेकांत जयपताकादि अन्थों में तेरह कहे हैं. उनके नाम मूल पाठमें सुगम है इसलिये यहां नहीं लिखते और इनकी विशेष व्याख्या भी आगे लिखेंगे. इस तरह वस्तु अनन्त सामान्य स्वभावमयी है. .
स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन व्याप्यव्यापकादिसम्बन्धस्थितानां स्वपरिणामात् परिणामान्तरागमनहेतुः वस्तुनः सद्रूपता
परिणतिः अस्तिस्वभावः . अर्थ—स्वद्रव्यादि चारधर्मोके साथ व्याप्य व्यापकादि संबंधसे स्थित है तथा स्वपरिणामसे परपरिणाममें नहीं जाता ऐसी जो वस्तुकी सद्रूपता परिणति उसको अस्तिस्वभाव कहते हैं..
विवेचन-अब यथाक्रमसे प्रथम अस्ति स्वभावका लक्षण कहते है. स्वद्रव्यादि चारधर्मोंका जिसमें व्यापकत्व है. वे चार धर्म (१) द्रव्य-जो गुणपर्यायके समुदायका प्राधार हो (२) क्षेत्रजो प्रदेश सर्वगुणपर्याय की अवस्थाका अवगाह स्थान (३) कालजो उत्पाद व्यय ध्रुव परिणामी (४) भाव-जो सर्व गुण पर्यायका कार्य धर्म. जैसे-(१) जीवका स्वद्रव्य, गुणका समुदाय है उस गुण पर्यायका जो उत्पादक हो वही स्वद्रव्य है (२) जीव के असंख्याते प्रदेश हैं. वे स्वक्षेत्र पर्याय हैं. जैसे देखनादि गुणके पर्यायका जो क्षेत्र वह स्व क्षेत्र है (३) पर्यायमें कारण कार्यादिका उत्पाद व्यय वही स्वकाल है (४) अतीत अनागत वर्तमानका परिणमन वह स्वभाव है और वही कार्यादि धर्म है. जैसे-ज्ञानगुणका पर्याय