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नयचक्रसार हि० अ०
वह सामान्य के आधारवर्ती है इसके सहित जाने यह विशेष के साथ सामान्य का ग्रहण हुवा और सामान्य को भी विशेष सहित जाने यह सर्वज्ञ सर्वदर्शीपना समझना इसतरह स्वतत्व का ज्ञान प्राप्त करनेसे स्वधर्म की प्राप्ति होती है तथा स्वरूप की प्राप्ति स्वरूपमें रमणता होती है और उस रमणतासे ध्यान की एकत्वता होती है अर्थात् निश्चयज्ञान निश्चयचारित्र, निश्चयतप पना प्राप्त होता है और इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
तत्र प्रथमतः ग्रन्थिभेदं कृत्त्वा शुद्ध श्रद्धानज्ञानी द्वादश कषायोपशमः स्वरूपैकत्वध्थानपरिणतेन क्षपक श्रेणी परिपाटीकृतघाति कर्मक्षयः, प्रवास केवलज्ञानदर्शनः, योगनिरोधात् योगीभावमापन्नः, अघातिकर्मक्षयानन्तरं समय एवास्पर्शवद्, गत्वा एकान्तिकात्यन्तिकानां वाधनिरूपाधिनिधिरूपं चरित्रानयोशाविना शिसं पूर्णात्मशक्तिप्राग्भावलक्षणं सुखमनुभवन् सिध्यति साधनं तं कालं तिष्ठति परमात्मा इति एतत् कार्य सर्वे भव्यानां ॥
अर्थ - प्रथम ग्रन्थिभेद करके सुद्धश्रधावान तथा सुद्ध ज्ञानी जीव पहले तीन चोकड़ी का क्षयोपशम करके प्राप्त किया है चारित्र उस ध्यान से एकत्व होकर क्षपकश्रेणी के अनुक्रम से घातिका का क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्तकर सयोगी केवळी गुणस्थानक पर जघन्य अन्तरमुहूर्त उत्कृष्ट आठ वर्ष न्यून पूर्वकोढ वर्ष पर्यंत रह कर कोई जीव समुद्घात करता है और कोई नहीं भी करता परन्तु आवञ्जिकरण सब केवली करते है. जिसका स्वरूप कहते हैं ।