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स्याद्वाइ स्वरूप.
(५१) मूलतत्त्व सदा स्थिर रहते हैं; और इसमें जो अनेक परिवर्तन होते रहते हैं; यानी पूर्वपरिणामका नाश और नवीन परिणामका प्रादुर्भाव होता रहता है, वह विनाश और उत्पाद है इससे सारे पदार्थ उत्पत्ति विनाश और स्थिति (धौव्य) स्वभाववाले प्रमाणित होते हैं। जिसका उत्पाद, विनाश होता है उसको जैनशास्त्र ' पर्याय ' कहते है । जो मूल वस्तु सदा स्थायी है, वह ' द्रव्य ' के नामसे पुकारी जाती है । द्रव्यसे ( मूल वस्तुरूप से) प्रत्येक पदार्थ नित्य है, और पर्यायसे अनित्य है । इस तरह प्रत्येक पदार्थको न एकान्त नित्य और न एकान्त नित्य, बल्के नित्यानित्यरूपसे मानना ही 'स्याद्वाद' है ।
इसके सिवा एक वस्तुके प्रति 'अस्ति' 'नास्ति' का संबंध भी - जैसा कि ऊपर कहा गया है - यानमें रखना चाहिए । घट ( प्रत्येक पदार्थ ) अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे 'सत्' है और दूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे 'असत् ' है । जैसेवर्षाऋतु में, काशीमें, जो मिट्टीका काला घडा बना है वह द्रव्यसे मिट्टीका है, मृत्तिकारूप है; जलादिरूप नहीं है; क्षेत्र से बनारसका है, दूसरे क्षेत्रोंका नहीं है; कालसे वर्षा ऋतुका है दूसरी ऋतुओंका
"उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः ।
गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादद्विद जनोऽपि कः ? ॥”
- अध्यात्मोपनिषद्, यशोविजयजी ।
+ विज्ञानशास्त्र भी कहता है कि, मूलप्रकृति ध्रुव - स्थिर है और उससे . - उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके रूपान्तर - परिणामान्तर हैं। इस तरह उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यके जैन सिद्धान्तका, विज्ञान (Scince ) भी पूर्णतया समर्थन करता है ।