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नयस्वरूप.
(१२१) क्यों कि वस्तु प्रत्यक्ष भेद होने पर भी द्रव्यान्तरपने को नहीं मानते है. इस लिये उनको संग्रहाभास कहते है. । जैन दर्शन विशेष सहित सामान्य ग्राही है. ।
" द्रव्यत्वादिनयान्तरसामान्यानि मत्त्वा तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः अपरसंग्रहः " जो जीवाजीवादि द्रव्य को अवान्तर सामान्यरूप से मानता हैं. परन्तु जीवविषय प्रत्येक जीव की विशेषतारूप जो भव्य, अभव्य सम्यक्त्वी, मिथ्यात्वी, नर, नारकादि पर्याय आदि भेद है. उस को 'गजनिमीलिका" मदोनमत्तता से नहीं गवेषता उस को अपरसंग्रह कहते हैं. और द्रव्य को सामान्यरूप से मानता है. परन्तु द्रव्य का जो परिणामि कतादि धर्म है उसको नहीं मानता वह अपरसंग्रहाभास कहलाता है. यह संग्रहनय का स्वरूप कहा. __संग्रहे च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभि
सन्धिना क्रियते स व्यवहारः, यथा वत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्वेत्यादि यः पुनरपरमार्थिक द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रैति स व्यवहाराभासः चार्वाकदर्शन मिति व्यवहारदुर्नयः। - अर्थ-व्यवहारनय कहते हैं. संग्रहनय से ग्राह्य जो वस्तु का सत्यादि धर्म उस को गुणभेद से विवेचन करता हुवा भिन्न २ कहे और पदार्थ की गुणप्रवृत्ति को मुख्यपने माने उस को व्यवहारनय कहते हैं. जैसे-जीव, पुद्गलादि द्रव्य के पर्याय का क्रममावी और सहभावी दो भेद हैं. जिस में जीव दो प्रकार के है. सिद्ध और संसारी इसी तरह पुगल के दो भेद हैं. परमाणु