Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 143
________________ (१२४) नयचक्रसार हि.. तीन लिंग, तीन वचन के भेद से शब्द का भेदपना करके उस भेदपने अर्थ कहे या जलाहरणादि सामर्थ को घट कहे. तथाकुंभ के चिन्ह-पर्याय सम्पूर्ण प्रगट नहीं होने पर भी उसको नाम सहित बुलावे अर्थात् कार्य के सामर्थपने को ग्रहण कर के वस्तु माने परन्तु मिट्टी के पिंडको घट नहीं मानता उस को शब्दनय कहते हैं. और नैगम संग्रह नय सत्ता योग्यता अंशग्राही है. तत्वा थे टीका में कहा है-शब्द के अनुयायी अर्थ प्रतिपादन करना और वही अर्थ वस्तु में धर्मपने प्रगट हो उसको वस्तुमाने अर्थात् शब्दानुयायी अर्थ परिणति को वस्तु कहे. लिंगादि भेद से अर्थ का भेद है उस भेद सहित धर्म को वस्तु माने उस को शब्दनय कहते हैं. और वस्तु का शब्दानुयायी अर्थ परिणति से विपरीत समर्थन करे उस को शब्दनयाभाल कहते है. यह शब्दनय का स्वरूप कहा. । . एकार्थावलं विपर्यायशब्देषु निरूक्तिभेदन भिन्नमय समभि रोहन् समभिरूढः । यथा इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छकः, पुरदारणात् पुरंदरः इत्यादिषु । पर्यायध्वनिनामाभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः, यथा इन्द्रः शक्रः, पुरंदरः इत्यादि भिन्नाभिधेये.। अर्थः-अब समाभरूढ नय का स्वरूप कहते है.। एक पदार्थ को ग्रहण कर के उसके एकार्थावलम्बी जितने नाम होते हैं उतने पर्यायनाम होते है और उतने ही नियुक्ति, व्यत्पत्ति तथा अर्थ में भेद होते हैं. उस अर्थ को सम्यक प्रकार से प्रारोहन करे

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