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नयचक्रसार, हि० अ०
परमगुणाः शेषः साधारणाः साधरणासाधारणगुणास्तेषां तदनुयायीप्रवृत्तिहेतुः परमस्वभावः इत्यादयः सामान्य स्वभावः।
अर्थ-श्रात्मा का वीर्य गुण जो वीर्यान्तराय कर्म से आच्छादित है. उस वीर्यान्तराय के क्षयोपशम या क्षय होने से प्रगट हुवा जो वीर्य धर्म उस को भाषा पर्याप्ति नामकर्म के उदय से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर के शब्दपने प्रयोग करते हैं. वे शब्द पुद्गल स्कंध हैं. परन्तु श्रोताजनों के लिये वे ज्ञान के हेतु हैं, जिस में गुण नहीं वह गुण का कारण नहीं होता ऐसा जो कहते हैं वे मिथ्या है, क्यों कि जो निमित कारणरूप है उस में गुण हो किंवा न भी हो परन्तु उपादान कारण में उस गुण की योग्यता निश्चय है, और जो वस्तुधर्म वचनयोग से ग्रहण होने योग्य है उस को वक्तव्य धर्म कहते हैं, और इस से इतर जो धर्मास्तिकाय में अनेक धर्म ऐसे हैं; वे वचन से अग्राह्य हैं; वे सब धर्म अवक्तव्य कहे जाते हैं, वक्तव्य धर्म से अवक्तव्य धर्म अनन्तगुण हैं; वचन तो संख्याते हैं; परन्तु उन वचनों में ऐसा सामर्थ्य है कि सब अवक्तव्य धर्म का भी ज्ञान होता है; उक्तं च-अभिलापा जे भावा अणंत भागो य अण अभिलाप्पाणं अभिलाप्य साणंतो भाग सु ए निवंद्वोत्र ॥ १ ॥ तत्र अक्षर संख्यात हैं. उन अक्षरों के सन्निपात संयोगी भाव असंख्यात हैं. उन सन्निपात अक्षरों से प्रहण करनेयोग्य जो पदार्थादि के भाव वे अनन्त गुण है. उससे अवक्तव्य भाव अनन्त गुण है. मतिज्ञान, श्रतिज्ञान अभिलाष्य भावका परोक्षग्राहक हैं. अवधिज्ञान पुद्गल को प्रत्यक्ष प्रमाण से