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नयचक्रसार हि० अ०
अर्थ – यह पंचास्तिकाय सामान्य विशेष धर्ममय है. उस में सामान्य स्वभावका लक्षण कहते हैं. द्रव्यमें व्याप्य हो और गुणपर्यायमें व्यापकरुपसे सदा परिणत होता हो उसको सामान्यस्वभाव कहते हैं. वह एक है, नित्य अर्थात् अविनाशी है, निरभवयव है, अक्रिय और सर्वगत है. अब विशेषस्वभाव कहते हैं. नित्यानित्य, निरवयव सा अवयव, संक्रियता हेतु और देशगत सर्वगत हो उसको विशेषस्वभाव कहते हैं. वह जानने योग्य विशेष पदार्थ के गुणोंकी जो प्रवृत्ति उसका कारण है. परन्तु सामान्य विशेषसे रहित नहीं है और न विशेष सामान्य से रहित है.
(२२)
द्रव्य
विवेचन – अब सामान्य और विशेषस्वभाव का लक्षण कहते हैं. जो पंचास्तिकाय है. वह सामान्य और विशेष धर्मी है. सामान्य स्वभाव का लक्षण विशेषावश्यक में इस तरह कहा है जो में व्याप्य हो तथा गुण पर्याय में व्यापक रूप से सदा परि गमता हो उसको सामान्य स्वभाव कहते हैं. सामान्य स्वभाव होता है वह एक नित्य अर्थात् अविनाशी, निरवयव विभावरुप अवयव से रहित, और सर्वगत अर्थात् सर्वमें व्यापक होता हैं. जैसे- जीवादि द्रव्य में जो एकत्व है वह पिंडरूप से है वह पिंडपना सब द्रव्य में है. सब गुण, पर्याय स्वस्व रुपसे अनेक है. परन्तु वे समुदाय पिंडको छोड कर अलग नहीं होते वह सामान्य स्वभाव उस सामान्य स्वभाव के दो भेद हैं. ( १ ) अस्तितादि जो सर्व पदार्थ में है उसको महासामान्य कहते हैं. इसकी प्रतीति श्रुतज्ञान से होती है प्रत्यक्ष अवधिदर्शन, केवलदर्शनवाले देख