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नयचक्रसार हि० अ०
द्रव्यमें गुणका अनेकपना स्व, स्वामित्व और व्याप्य, व्यापक भाव से है, जैसे- गुणपर्याय स्व-धन है और द्रव्य उसका स्वामी हैं अथवा द्रव्य व्याप्य है तथा गुण पर्याय उसमे व्यापक रूपसे हैं. इस लिये द्रव्य अनेक स्वभावी है । यह एक अनेक स्वभाव कहा ।
स्वस्व कार्य भेदेन स्वभावभेदेन गुरुलघुपर्यायभेदेन भेदस्वभावः अवस्थानाधरताद्यभेदेन अभेदस्वभावः भेदाभावे सर्वगुणपर्यायाणां सङ्करदोषः गुणगुणी लक्ष्यःलक्षणः कार्यकारणतानाशः श्रमेदभावे स्थानध्वंसः कस्यैते गुणाः को वा गुणी इत्याद्यभावः ।
लघु
अर्थ - अपने २ कार्य भेदसे, स्वभाव भेदसे और अगुरुपर्याय मेदसे भेदस्वभाव है. जैसे- जीवका स्वकार्य भेद. ज्ञान गुणसे जानपना, चारित्र गुणसे स्थिरता रमणता और पुद्रल द्रव्य का कार्यभेद वर्ण गंध रस स्पर्श रूप भिन्नता तथा स्वभाव भेदजैसे - अस्ति स्वभाव सद्भाव संबोधक है. नित्य स्वभाव - अविनासीपना, अनित्यस्वभाव - परिवर्तनरूप, एकपना-पिंडरूप और अनेकपना- प्रदेशादिका बोधक है इत्यादि स्वभाव भेद है. तथा अगुरुलघुपर्यायभेद जैसे- प्रदेश में मुणविभाग में पृथक् पृथक है. परस्पर तुल्य नहीं है किन्तु हानि वृद्धिरूप परिणमन है इत्यादि. इस सरह वस्तुमें भेद स्वभात्र रहा हुआ है ।
अभेद स्वभाव कहते हैं, सव धर्मका अवस्थान अर्थात्
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