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छठा वचन-प्रचार
साथ ही अवक्तव्य भी है ।
नयचक्रसार, हि० अ०
सातवां वचन - प्रचार - " अमुक अपेक्षासे घट नित्य, नित्य होने के साथ ही अवक्तव्य भी है ।
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सामान्यतया, घटका तीन तरहसे - नित्य, अनित्य और अवक्तव्यरूपसे - विचार किया जा चुका है। इन तीन वचनप्रकारौंको उक्त चार वचन - प्रकारोंके साथ मिला देने से सात वचन - प्रकार होते हैं । इन सात वचन - प्रकारोंको जैन ' सप्तभंगी' कहते हैं । 'सप्त' यानी सात, और 'भंग' यानी वचनप्रकार | अर्थात् सात वचन - प्रकारके समूहको सप्तभंगी कहते है । इन सातों वचन-प्रयोगोंको भिन्न भिन्न अपेक्षासे - भिन्न भिन्न दृष्टिसे समझना चाहिऐ। किसी भी वचनप्रकारको एकान्त दृष्टिसे नहीं मानना चाहिए । यह बात तो सरलतासे समझमें आ सकती है। कि, यदि एक वचन - प्रकारको एकान्तदृष्टिसे मानेंगे तो दूसरे वचनप्रकार असत्य हो जायँगे ।
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अमुक अपेक्षा से घट नित्य होनेके
सप्तभङ्गी.
" सर्वत्रोऽऽयं ध्वनिर्विधिप्रतिषधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः मनुगच्छति ।
एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशाद् अविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी
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" स्यादस्त्येव सर्वम् इति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः । नास्त्येव सर्वम् इति निषेधकल्पनया द्वितियः ।
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स्याह
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स्यादस्त्येव स्याहनास्त्येव, इत्ति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः । '
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