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नयचक्रसार हि० अ०
अनात्यन्तिकोगुनैकान्तिको भवेत फलं गुणोप्यगुणो भवति सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र क्रिया यास्ते कान्तिकानाबाध सुखाख्यसिद्धि गुणोऽवाप्यते एतदुक्तं भवति सम्यग् दर्शनादिकैव क्रियासिद्धि फल गुणेन फलवत्यपरा तु सांसारिक सुख फलाभ्यास एव फलाध्यारोपानिष्फलत्यर्थः”
रत्नत्रयी परिणाम विना जो क्रिया करनी है उससे संसार सुख मिलता है. वह क्रिया निष्फल है. एसा पाठ है इसलिये भावनिक्षेप के कारण विना पहिले के तीन निक्षेप निष्फल है. निक्षेप है वह मूल वस्तु का पर्याय है और वस्तु का स्वधर्म है।
॥नयस्वरूप ॥ नयास्तु पदार्थज्ञाने ज्ञानांशाः तत्रानन्तधर्मात्मके वस्तुन्येक धर्मोनयनं ज्ञाननयः तथा " रत्नाकरे " नीयते येने श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपतुरभिप्रायविशेषोनयः, स्वाभिप्रेतादंशापलापी पुनर्नयोभासः, स व्याससमासाभ्यां द्विप्रकारः व्यासतोऽनेकविकल्पः समासतो विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः तत्र द्रव्यार्थिकश्चतुर्षा (१) नैगमः, (२) संग्रहः, (३) व्यवहारः, (४) ऋजुसूत्रभेदात्, पर्यायार्थिकस्त्रिधा (१)शद्धः (२) समभिरूढः (३) एवंभूतभेदात् ।
अर्थ-पदार्थ के ज्ञानांसको नय कहते हैं. जिसका लक्षण ॥ वस्तु अनन्त धर्मात्मक है. जैसे-जीवादि एक पदार्थ में अनन्त धर्म है. उसमें से एक धर्म की गवेषणा की. और अन्य अनन्ते धर्म रहे हुवे है. उनका उच्छेद भी नहीं और ग्रहण भी नहीं.