________________
(२१४)
नयचक्रसार हि० म० अर्थ-समभिरूढनय की व्याख्या करते हैं. जो शब्दनस्य है वह इन्द्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि सब इन्द्रके नाम भेद हैं. परन्तु एक पर्याययुक्त इन्द्रको देखकर उसका सब नाम कहे । उक्तंच विशेषावश्यके “ एकस्मिन्नपि इन्द्रादिके वस्तुनि यावत् इन्द्रन शक्रन-पुरदारणादयोऽर्थघटन्ते सद्वेशेनन्द्र शक्रादिबहुपर्यायमपि तस्तु शब्दनयो मन्यते समभिरूढस्तु नैवं मन्यते इत्यनयोर्भेदः"
वस्तु के एकपर्याय प्रगट होनेपर (शेष पर्यायों के अभाव में भी ) शब्दनय उस वस्तु को सब नामोंसे बोलावे-संबोधै परन्तु सममिरूढ़नय को वह अमान्य है इस वास्ते शब्द और समाभिरूढ़ नय में अन्तर-भेद है। ...... कुंभादि में जो संज्ञा का वाच्य अर्थ दिखे वही संज्ञा कहे जिस में संज्ञान्तर अर्य का विमुखपना है उसको समभिरूढनय कहते हैं. अगर एकसंज्ञा में सर्व नामान्तर मानते हैं तो सबको संकरता दोष होता है. तब पर्याय का भेद नहीं रहता। पर्यायान्तर झेता है वह भेदपने ही होता है. इसवास्ते लिंगभेद की सापेक्षतासे वस्तुभेदपना मानना चाहिये यह समभिरूढ नय स्वरूप कहा इस नय में भेदज्ञान की मुख्यता है ।
एवं जह सदत्यो संतो भूत्रो तदन्नहाभूत्रो ॥ तेणेवं भूयनयो, तदत्यारो विसेसेणं ॥१॥ एवं यथा घटचेष्टायामित्यादिरूपेण शब्दार्थों व्यवस्थितः तहत्ति, तथैव यो वर्तते घटादिकोऽथेः स एवं सन् भूतो विद्यमानः " तदनाहभूमोति" वस्तु तदन्यथा शरार्थोल्लंघनेन वर्तते स तत्त्वतो घटाद्यर्थोपि न भवति