Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 149
________________ (१३०) नयचक्रसार हि० अ० है, समभिरूढनय व्यक्त धर्मके वाचक पर्याय को ग्रहण करता है. इसवास्ते शब्दनयसे समभिरुढ अल्प विषयि है. समभिरूढनय पर्याय के सब कालकी गवेषणा करता है. और एवंभूतनय प्रतिसमय क्रिया भेदसे भिन्न पदार्थपना मानता है इसलिये समभिरूढनयसे एवं भूतनय अल्पविषयि है. और इससे समभिरूढनय अ. धिक विषयि है. नय वचन है वह स्वस्वरूपसे अस्ति है परनय के स्वरूप की नास्ति है। इस तरह सर्वनय की विधि प्रतिषेध करनेसे सप्तभंगी उत्पन्न होती है परन्तु नयकी सप्तभंगी विकला देशी होती है. अर्थात् सप्तभंगीमें से पीछेके चार भांगे जो विकलादेशी कहे हैं. वे होते है सकलादेशी नहीं होते और जो सकलादेशी सप्तभंगी है वह प्रमाण है इसलिये नयकी सप्तभंगी नहीं होती. उक्तंच रत्नाकरावतारिकायां " विकलादेश स्वभावादि नय सप्तभंगी वस्त्वंशमात्रप्ररुपकत्वात् सकलादेश स्वभावा तु प्रमाण सप्तभंगी सम्पूर्णवस्तु स्वरूपप्ररूपकत्वात् " यह यथा योग्यपने नयाधिकार कहा ॥ . जीवमें सातनय घटाते हैं. (१) नेगमनयवाला कहता है. गुणपर्याय और शरीर सहित है वे जीव इस नयवालेने शरीरके साथ दुसरे पुद्गल व धर्मास्ति कायादि द्रव्योका जीवमें ग्रहण किया.

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