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नयचक्रसार हि० अ० - अब व्यवहार नय से लक्षण कहते है. स्वक्रिया-प्रवृत्ति का कर्ता हो उसको द्रव्य कहते है. जैसे जीव की शुद्ध क्रिया है वह ज्ञानादि गुण की प्रवृत्ति, समस्त ज्ञेय पदार्थ जानने के लिये ज्ञान की प्रवृत्ति वैसे ही सब गुण का कार्य यथा-ज्ञानगुणका कार्य विशेष धर्म का जानना, दर्शनगुण का कार्य समस्त सामान्य भावों का बोध होना, चारित्र गुण का कार्य है स्वरूप रमणता इत्यादि तथा धर्मास्तिकाय का कार्य है गतिगुण प्राप्त हुवे जीव, पुद्गल को चलन सहकारी होना इसी तरह सब द्रव्यों का भी स्वगुणापेक्षासे कार्य समझ लेना यह लक्षण सब द्रव्यों के जो गुण उनकी स्व कार्यानुयायी प्रवृत्ति को अर्थ क्रिया कहते है.
द्रव्य छे है.-(१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय ( ३) आकाशास्तिकाय ( ४ ) पुद्गलास्तिकाय (५) जीवास्तिकाय ( ६ ) काल इनसे अधिक कोई पदार्थ नहीं है. जो नैयायिकादि सोलह पदार्थ मानते है (१) प्रसाण (२) प्रमेय (३) संशय (४) प्रयोजन (५) दृष्टान्त (६) सिद्धान्त (७) अवयव (८) तर्क (९) निर्णय (१०) वाद (११) जल्प (१२) वितंडा (१३) हेत्वाभास (१४) जल्प (१२) जाति और (१६) निग्रह वे मिथ्या है क्यों कि वे प्रमाण को भिन्न पदार्थ कहते है. वह तो ज्ञान है और प्रमेय आत्मा का गुण है. वह गुण आत्म में रहा हुवा है. उसको भिन्न पदार्थ क्यो कहना ? दूसरा जो प्रयोजन सिद्धान्तादिक वह सब जीव द्रव्य की प्रवृत्ति है इस लिये भिन्न पदार्थ नहीं कह सक्ते.