Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 152
________________ प्रमाणस्वरूप. (१३३) अर्थापत्तिप्रमाणं, यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्गे तदा raat मुझे एव इत्यादि प्रमाण परिपाटी गृहीत जीवा जीवस्त्ररूपः सम्यकज्ञानी उच्यते । अर्थ - प्रमाण का स्वरूप कहते हैं. सब नयों के स्वरूप को ग्रहण करनेवाला तथा सब धर्म का जानपना हो जिस में एसा जो ज्ञान वह प्रमाण हैं. माप विशेष को प्रमाण कहते हैं. अर्थात् तीन जगत के सब प्रमेय को मापने का जो प्रमाण वह ज्ञान है और उस प्रमाण का कर्ता आत्मा प्रमाता है. वह प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध है. चैतन्य स्वरूप परिणामी है पुनः भवन धर्म से उत्पाद व्यय रूप को परिणमन होता है इस लिये परिणामिक है, कर्ता है, भोक्ता है. जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है. बिना भोक्ता के सुखमयी नहीं कहलाता यह चैतन्य संसारपने स्वदेह परिणामी है. प्रत्येक शरीर भिन्नत्वे भिन्न जीव है. वे पांच प्रकार की सामग्री पाकर सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र के साधन से सम्पूर्ण अविनासी, निर्मल, निःकलंक, असहाय, अप्रयास, स्वगुणनिरावरण, अक्षय, श्रव्यावाघ सुखमयी ऐसी सिद्धता निष्पन्नता उपार्जन करें यही साधन मार्ग है । स्व, परका व्यवसायी अर्थात् स्व आत्मा से भिन्न पर जो अनन्त जीव तथा धर्मादि का व्यवसायी - व्यवच्छेदक ज्ञान उस को प्रमाण कहते हैं. जिस के मुख्य दो भेद हैं. ( १ ) प्रत्यक्ष (२) परोक्ष. स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं. इस से इतर अर्थात् अस्पष्ट ज्ञान को परोक्ष कहते हैं. अथवा आत्मा के उपयोग से

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