________________
(७४)
नयचक्रसार हि० प्र० हान्युत्पादः ध्रुवत्वं चागुरुलघुपर्याणां एवं सर्व द्रव्येषु ज्ञेय " तत्वार्थवृतौ" आकाशाधिकारे यत्राप्यवगाहकजीवपुद्गलादिनास्ति तत्राप्यगुरुलघुपर्यायवर्तनयावश्यत्वे चानित्यताभ्युपेया ते च अन्ये अन्ये च भवन्ति अन्यथा तत्र नवोत्पाद्रव्ययौ नापेक्षिकाविति न्युनएवं सल्लक्षणंस्यात् इति षष्ठः ॥
अर्थ-सर्व द्रव्य और पर्याय अगुरुलघु धर्म संयुक्त होते है. प्रत्येक द्रव्य के प्रतिप्रदेश में अगुरुलघु धर्म अनन्त है. वह प्रदेश या पर्याय में किसी समय हानि और किस समयवृद्धि को प्राप्त होता है. हानि, वृद्धि के छे छे भेद है. जिसका स्वरुप आगे लिख चुके है. जैसे-परमाणु में वर्णादि की हानि, वृद्धि होती है उसी तरह अगुरुलघु की भी हानिवृद्धि होती हैं. जब हानिका व्यय है तब वृद्धि का उत्पाद है. या वृद्धि का व्यय है तो हानि का उत्पाद है. परन्तु अगुरु लघुता ध्रुव है. इसी तरह सब द्रव्यों में समझ लेना। : तत्वार्थ की टीका में आकाश द्रव्य के अधिकार में लिखा है कि अलोकाकाश में अवगाहक जीव पुद्गलादि द्रव्य नहीं है परन्तु वहां भी अगुरूलघु पर्याय अवश्य है. और अनित्यता भी अंगीकार करते है. वह अगुरूलघु पर्याय तथा प्रदेश में भिन्न भिन्न रूप से है पूर्व समय अगुरूलघु का व्यय और दूसरे समय नये अगुरूलघु का उत्पाद है. अगर इस तरह उत्पाद व्यय की गवेषणा न की जाय तो अलोक में सत्लक्षण की न्यूनता होती