Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 144
________________ नयस्वरूप. (१२५) अर्थात् पूर्वोक्त अर्थ संयुक्त हो उसको समभिरूढ नय कहते हैं. जैसेइदिधातु परमैश्वर अर्थ है उस परमैश्वर्यवान को इन्द्र कहे. तथा-शकन-नवी २ शक्ति युक्त हो उसको शक कहते हैं. पुर दैत्य दर-विदारे उसको पुरंदर कहते हैं. शचि=इन्द्राणी. उसका पति= स्वामी उसको शचिपति कहते हैं. ये सब धर्म इन्द्र में हैं. और देवलोक का स्वामी हैं इस लिये इन्द्र ऐसे नाम से संबोधन करते हैं परन्तु दूसरे केवल नामादि इन्द्र है. उनको उस नाम से नहीं बुलाते किन्तु उनके जितने पर्याय नाम है उन का भिन्न २ अर्थ करे परन्तु एकार्थ न समझे उसको समभिरूढ नय कहते हैं. इति समभिरूढनयः। एवं भिन्नशब्दवाच्यत्वाच्छब्दानां स्वप्रतिनिमित्तभूतक्रियाविशिष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवंभूतः । यथा इन्दनमनुभव निंदः, शकनाच्छकः, शब्दवाच्यतया प्रत्यक्षस्तदाभासः । तथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यवस्तुनः घटशब्दवाच्यं घटशब्दद्रव्य वृत्तिभूतार्थशून्यत्वात् पटवदित्यादि.। - अर्थ एवं भूतनय का स्वरूप कहते हैं.। शब्दनय प्रवृत्ति निमित जो क्रिया उसके विशिष्ट अर्थ संयुक्त वाच्य धर्म से प्राप्त हो अर्थात् कारण कार्य धर्म सहित हो उसको एवंभूत नय कहते हैं. ऐश्वर सहित हो वह इन्द्र, शक्ररूप सिंहासन पर बैठा हो तब शक्र, इन्द्राणी के साथ बैठा हो उस समय सचिपति अर्थात् जित ने शब्द वे पर्यायार्थ भाव को प्राप्त हो वैसे नाम से संबोधन करे और जो पर्यायार्थ न दिखे उसको उस नाम से नहीं कहे. जहां तक एक

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