Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 137
________________ (१९८) नयचक्रसार हि० अ० नैगमनय का स्वरूप कहते हैं । जो धर्म को प्रधानपने या गौनपने अथवा धर्मी को प्रधानपने या गौनपने तथा धर्म धर्मी दोनोंको प्रधानपने या गौनपने माने जो धर्म की प्रधानता है वह पर्याय की प्रधानता हुई और धर्मी की प्रधानता है वह द्रव्य की प्रधानता हुई, इसी तरह गौनता. और धर्मधर्मी की प्रधानता, गौनत है वह द्रव्य, पर्याय का प्रधान, गौनपना है ऐसे प्रधान, गौनपने की गवेषणारूप ज्ञानोपयोग उस को नैगमनय कहते हैं, उस के बोध को नैगम बोध कहते है । जैसे सत्, चैतन्य इन दो धर्मों में एक की मुख्यता और दुसरे की गौनता अंगीकार करे उस को नैगम कहते हैं. यहां चेतन्य नामक जो व्यंजन पर्याय है उस को प्रधानपने गने क्यो कि चेतन्यता है वह विशेष गुण है और सत्त्व-अस्तित्व नामक व्यंजन पर्याय सब द्रव्यों में समानरूप से है. इस लिये गौनपने समझे यह नैगमनय का पहला भेद है. । तथा " वस्तु पर्यायवद् द्रव्यं " यह वाक्य धर्मी नैगम नय का है.। यहां " पर्यायवत् द्रव्यं " ऐसी वस्तु है इसमें द्रव्य का मुख्यपना है. और " वस्तु पर्यायवत् " वाक्य में वस्तु का गौनपना तथा पर्याय का मुख्यपना है. यह उभयगोचरता है वास्ते यह नैगम नय का दूसरा भेद है.। | .... चणमेक सुखी विषयाशक्तो जीवः इति धर्मधर्मीणोरिति " यहां विषयाशक्त जीव नामक धर्मी की मुख्यता विशेष रूप से है

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