Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 147
________________ (१२८) नयचक्रसार हि. अ. शब्दप्रधान अर्थ जिसद्रव्य में गौनपने वर्ते वह शब्दादि तीन नय है. ऐसा तत्त्वार्थ की टीका में कहा है । इन सातनयों में प्रथम की नैगमनय सामान्य विशेष दोनों को माननेवाली है. संग्रहनय सामान्य को मानती है. व्यवहारनय विशेष को मानती है. और द्रव्यालम्बी है । तथा ऋजुसूत्रनय विशेषग्राही है. ये चारों द्रव्यनय कहलाती है. और पिछली तीनों नय ( शब्दादि ) पर्यायार्थिक विशेषावलम्बी भावनय है. तथा शद्वादिनय नाम, स्थापना, द्रव्य इन प्रथम के तीन निक्षेपों को अवस्तु मानती है. " तिण्इं सद्दनयाणं अवत्थु" यह अनुयोगद्वार सूत्र का वाक्य हैं। ____ इन सातनयों को परस्पर सापेक्षपने ग्रहण करता है वह सम्यक्त्वी है. अन्यथा मिथ्यात्वी समझना. पुनः एकैक नय के सौ सौ भेद होते हैं. इसतरह सातनयके सात सौ भेद होते हैं. यह अधिकार अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है। .. पूर्वपूर्वनयः प्रचुरगोचरः । परास्तु परिमितविषयः । सन्मात्रगोचरात् संग्रहात् नैगमो भावाभावभूमित्वाद् भूरिविषयः, वर्तमानविषयाद् ऋजुमूत्राब्द्यवहारस्त्रिकालविषयत्वात् बहुविषयकालादिभेदेन भिन्नार्योपदर्शनात् भिनऋजुमूत्रविपरीतत्वान्महार्थः प्रतिपर्यायपशब्दमथभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छब्दः प्रभूतविषयः प्रतिक्रियांभिन्नार्थ प्रतिजानानात् एवंभूतात् समभिरूढः महान् गोचरः । नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुजति ।

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