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नयचक्रसार हि० अ०
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सत् ' को भी ' सत् ' पनेका जो निषेध किया जाता है, वह ऊपर कहे अनुसार अपने में नहीं रही हुई विशेष धर्मकी सत्ताकी अपेक्षासे । जिसमें लेखनशक्ति या वक्तृत्वशक्ति नहीं है, वह कहता है कि - " मैं लेखक नहीं हूँ । या " मैं वक्ता नहीं हूँ । इन शब्दप्रयोगों में 'मैं' और साथ ही ' नहीं ' का उच्चारण किया गया है, वह ठीक है । कारण, हरेक समझ सकता है कि यद्यपि 'मैं' स्वयं ' सत् ' हूँ, तथापि मुझमें लेखन या वक्तृत्वशक्ति नहीं है इसलिए उस शक्तिरूपसे “ मैं नहीं हूँ " । इस तरह अनुसंधान करनेसे सर्वत्र एक ही व्यक्तिमें 'सत्त्व ' और 'असत्त्व ' का स्याद्वाद बराबर समझमें आ जाता है ।
स्याद्वादके सिद्धान्तको हम और भी थोडा स्पष्ट करेंगेसारे पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, ऐसे तीन धर्मवाले हैं । उदाहरणार्थ - एक सुवर्णकी कंठी लो । उसको तोड़कर डोरा बना डाला । इस बातको हरेक समझ सकता है कि कंठी नष्ट हुई और डोरा उत्पन्न हुआ | मगर यह नहीं कहा जा सकता है कि, कंठी सर्वथा नष्ट ही हो गई है और डोरा बिलकुल ही नवीन उत्पन्न हुआ है। डोरेका विलकुल ही नवीन उत्पन्न होना तो उस समय माना जा सकता है, जब कि उसमें कंठीकी कोइ चीज आई ही न हो । मगर जब कि कंठीका सारा सुवर्ण डोरेमें आ गया है; कंठीका आकारमात्र ही बदला है; तब यह नहीं कहा जा सकता है कि डोरा बिलकुल नया उत्पन्न हुआ है । इसी तरह
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१ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्तं सत् । " - तवार्थसूत्र, 'उमास्वातिवाचक |