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नयचक्रसार हि० अ०
जीव अपने ज्ञानादि स्वगुण पर्यायोंसे ज्ञायकत्व, परिच्छेदकत्व, वेतृत्वादि रूपसे अस्ति है. इसतरह सब गुणोंमें स्वधर्म की अस्तिता है. और अविभाग पर्याय के समुह की एक प्रवृत्ति को गुण कहते हैं. वह स्वकार्य कारण धर्मपने अस्ति है. एवं छे द्रव्यो में स्वस्वरूपपने अस्तिता है. और नास्ति आदि छे भांगोंकी सापेक्षता रखनेके लिये स्यात् पद पूर्वक बोलना चाहिये इसलिये स्यात् अस्ति नामक प्रथम भंग कहा. अस्तिधर्म है वह नास्ति सहित है. स्यात् शब्द अस्ति धर्ममें नास्ति आदि धर्मोकी सत्यता प्रगटकर्ता है.
तथा स्वजात्यन्यद्रव्याणां तद्धर्माणां च विजातिपरद्रव्याणां तद्धर्माणां च जीवे सर्वथैव अभावात् नास्तित्वं तेन स्यात् नास्तिरूपो द्वितीयो भंङ्गः अत्र परधर्माणां नास्तित्त्वं नास्तिपदेन गृहीतं शेषा अस्तित्त्वादयः स्यात् पदेन गृहीता इति ।
अर्थ-स्वजातीय अन्यद्रव्योंका तथा उनमें रहे हुवे धर्मों का और विजातीय परद्रव्योंका तथा उनमें रहे हुए धर्मोका जीवमें अभाव होनेसे नास्तित्व धर्म हुआ. इस कारणसे स्यात् नास्तिरूप दूसरा भंग होता है. यहां परधर्म की नास्तिता नास्तिपदसे ग्रहण करके शेष अस्ति आदि धर्मको स्यात् पदसे ग्रहण किया इति द्वितीय भंङ्गः
विवेचन-अन्य जो सिद्ध, संसारी जीव हैं. उनके गुणपर्याय और अस्तित्वादि प्रमुख सर्व धर्मोंकी विवक्षित जीव में