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बिता दे, फिर भी काम नहीं हो पाता और आत्मविज्ञान तो अंत:मुहूर्त में भी 'एब्सोल्यूट' बना देगा!
धातुओं के मिश्रण का विभाजन प्रत्येक के गुणधर्म के ज्ञान के आधार पर हो पाता है। उसी प्रकार आत्मा-अनात्मा के मिश्रण का विभाजन, जो दोनों के गुणधर्मों को जाने, वे पुरुष ही वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा कर सकते है।
__ अनादि से विनाशी वस्तुओं की तरफ मुड़ी हुई दृष्टि को 'ज्ञानीपुरुष' निज के अविनाशी स्वरूप की तरफ मोड़ देते हैं, जो वापस कभी भी वहाँ से हटती नहीं है! दृष्टिफेर से ही संसार खड़ा है! ज्ञानी की दिव्यातिदिव्य देन है कि वे अंत:मुहूर्त में आत्मदृष्टि कर देते हैं, दिव्य दृष्टि दे देते हैं जो स्व-पर के आत्मस्वरूप को ही देखती है। दृष्टि-दृष्टा में स्थिर कर देते हैं। फिर खुद को यक़ीन हो जाता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ!' दृष्टि भी बोलने लगती है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' दोनों का भेद टूट जाता है और अभेद हो जाते हैं!
जहाँ दृष्टि दृष्टा में पड़े, वहाँ समग्र दर्शन खुल जाता है। दृष्टि दृष्टा में पड़े, दृष्टि स्वभावसन्मुख हो जाए तो खुद को खुद के ही वास्तविक शुद्ध स्वरूप की प्रतीति होती है, फिर दृष्टि और दृष्टा ऐक्यभाव में आ जाते हैं ! जहाँ आत्मदृष्टि है वहीं निराकुलता है, आत्मदृष्टि से मोक्ष द्वार खुलते हैं! देहदृष्टि, मनोदृष्टि से संसार का सर्जन होता है।
शुद्ध ज्ञान, जो कि निरंतर विनाशी-अविनाशी वस्तुओं का भेदांकन करके यथार्थ को दिखाता है, और वही परमात्मा है!
संसार व्यवहार क्रियात्मक और आत्मव्यवहार ज्ञानात्मक होने के कारण दोनों सर्वकाल भिन्न रूप से ही बरतते हैं। एक की क्रिया है और दूसरे का जानपन (जानने का गुण) है। करनेवाला अहंकार और जाननेवाला शुद्धात्मा इतना ही भेद जिसने प्राप्त कर लिया, उसका संसार अस्त हो गया। जिसे यह भेद प्राप्त करना हो और 'ज्ञानीपुरुष' नहीं मिले हों तो 'हे भगवान! ज्ञान आपका और क्रिया मेरी', यदि यह प्रार्थना अंदरवाले भगवान से सतत करता रहे, तब भी एक न एक दिन भगवान उसे मिले बगैर रहेंगे नहीं।
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