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पूर्वभूमिका
वैसा सुख दुःखपूर्वक और दुःख फल सहित ही होता है। फिर भी मनुष्य उसके पीछे पागल बनकर भागता है। दूसरे, शारीरिक-इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक है क्योंकि वह सुख अमुक काल के पश्चात् नियम से जानेवाला है अर्थात् जीव को ऐसा सुख मात्र त्रस पर्याय में ही मिलने योग्य है जो कि बहुत अल्प काल के लिये होता है, पश्चात् वह जीव नियम से एकेन्द्रिय में जाता है जहाँ अनन्त काल तक अनन्त द:ख भोगने पड़ते हैं। एकेन्द्रिय में से बाहर निकलना भी भगवान ने चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति से भी अधिक दुर्लभ बतलाया है।
इन्द्रियों के विषयों से प्रीति भी संसार का कारण है। हमने अनन्त भवों में अनन्तों बार इन्द्रियों के विषयों का भोग भोगा है लेकिन इन्द्रियों के विषयों को भोगने से कभी भी मन भरता नहीं बल्कि वह अधिक बलवान बनता है वह और अधिक माँगता है। जिस प्रकार अग्नि में लकड़ी डालने से वह अधिक बलवान बनती है, उसी प्रकार से इन्द्रियों को जितनी अधिक भोग सामग्री देंगे, उतनी उसकी अभिलाषा मिटती नहीं बल्कि बढ़ती है।
आत्मानुशासन, श्लोक ५१ में बतलाया है कि ‘काले नाग जैसे प्राण नाश करनेवाले ऐसे इस भोग की तीव्र अभिलाषा से भूत, भावी और वर्तमान भवों को नष्ट करके तू अखण्डित मृत्यु से अनन्त बार मरा और आत्मा के सर्व स्वाधीन सुख का नाश किया; मुझे तो लगता है कि - तू अविवेक, परलोक भय से रहित, निर्दय और कठोर परिणामी है क्योंकि महापुरुषों से निन्दित वस्तु का ही तू अभिलाषी हुआ है। धिक्कार है उन कामी पुरुषों को जिनका अन्त:करण निरन्तर काम-क्रोध रूप महाग्रह (डाकू-पिशाच) के वश रहा करता है! ऐसा प्राणी इस जगत में क्या-क्या नहीं करता? सर्व कुकर्म करता है।'
अनादि से अगर कोई मेरा सब से बड़ा दुश्मन है तो वह मैं स्वयं ही हूँ। अनादि से अगर किसी ने मुझे सब से ज्यादा छला (ठगा) है तो वह मैं स्वयं ही हूँ। अनादि से मैंने स्वयं को गलत तर्कों में, पक्ष में, आग्रह में, हठाग्रह में, कदाग्रह में फँसाकर रखा हुआ है। इस कारण हम स्वयं को स्वच्छन्दता से मुक्ति दिलाने में असफल रहे हैं और ऐसे ही अपने आपको छलते रहे हैं। मैं यह सब छोड़कर अपना मित्र भी बन सकता हूँ। उसका तरीका बहुत ही आसान है। मुझे अपना ग़लत तर्क, पक्ष, आग्रह, हठाग्रह, कदाग्रह और स्वच्छन्दता छोड़कर 'सच्चा वही मेरा' और 'अच्छा वही मेरा' इस सूत्र को अपनाकर अपना परम मित्र बनना है।
आगे आत्मानुशासन श्लोक ५४ में भी बतलाया है कि 'हे जीव! इस अपार और अथाह संसार में परिभ्रमण करते-करते तूने अनेक योनियाँ धारण की, महादोषयुक्त सप्त धातुमय मल से