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सम्यग्दर्शन की विधि
रूप भी है। इच्छा नाश से ही वैराग्य का जन्म होता है। जब तक एक भी सांसारिक इच्छा है, तब तक संसार का नाश नहीं होता । इच्छा मन में उत्पन्न होती है, इस कारण पहले मन में से संसार का नाश आवश्यक है। मन में से संसार का नाश होते ही बाहर मात्र यन्त्रवत कार्य होते रहते हैं, परन्तु संसार का आन्तरिक चालक बल खत्म हो जाता है।
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इच्छा इस संसार का इंजन है। अनादि से यह जीव इच्छा पूर्ति के लिये भाग रहा है। मगर आज तक जीव की इच्छा पूर्ति नहीं हो पायी है क्योंकि जब तक किसी एक इच्छा की पूर्ति होती है, तब तक दूसरी अनेक नयी इच्छाएँ जन्म ले चुकी होती हैं। इस प्रकार यह जीव अनादि से इच्छा पूर्ति के प्रयास के कारण अनन्त संसार में भटक रहा है। यदि इस जन्म में भी हम इच्छाओं का यथार्थ शमन ( नाश) न कर पायें तब और कितने काल तक हम इस संसार में भटकेंगे, इसका पता नहीं । इच्छा पूर्ति में सहायक या अवरोधक के ऊपर क्रमशः राग या द्वेष होता है, वह राग-द्वेष भी संसार बढ़ने का और अनन्त दुःखों का एक कारण बनता है।
अनादि से अपनी आत्मा इस संसार में सम्यग्दर्शन के अभाव के कारण ही भटकती है अर्थात् अनन्त पुद्गल परावर्तन से अपनी आत्मा इस संसार में अनन्त दुःख सहन करती हुए घूमती रहती है और उसका मुख्य कारण है मिथ्यात्व अर्थात् सम्यग्दर्शन का अभाव। यह मिथ्यात्व अपना महान शत्रु है - ऐसा ज्ञात न होने के कारण बहुत से जीव अन्य-अन्य शत्रु की कल्पना करके आपस में लड़ते रहते हैं और इसी में यह अमूल्य जीवन पूरा करके, फिर अनन्त काल के दुःखों को आमन्त्रण देते हैं। परमात्मप्रकाश - त्रिविध आत्माधिकार गाथा ६५ में भी बतलाया है कि ‘इस जगत में (in the universe) ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं जहाँ चौरासी लाख जीव योनि में उत्पन्न होकर, भेदाभेद रत्नत्रय के प्रतिपादक जिन वचन को प्राप्त नहीं करता हुआ यह जीव अनादि काल से न भ्रमा हो ।'
आत्मा स्वभाव से सुख स्वरूप होने के कारण, सभी जीव सुख के ही इच्छुक होते हैं, तथापि सच्चे सुख की जानकारी अथवा अनुभव न होने के कारण अनादि से हमारी आत्मा शारीरिक-इन्द्रियजन्य सुख, जो कि वास्तव में सुख नहीं है मात्र सुखाभास रूप ही है, मात्र दु:खपूर्वक ही है, उसका सेवन करता रहता है। वह सुख इन्द्रियों के आकुलता रूप दुःख को / वेग को शान्त करने को ही सेवन किया जाता है तथापि वह सुख अग्नि में ईंधन रूप ही होता है; अर्थात् वह सुख बारम्बार उसकी इच्छा रूप दुःख जागृत करने का ही काम करता है। वह सुख (भोग) भोगते हुए वह जो नया पाप बाँधता है वह नये दुःखों का कारण बनता है अर्थात्