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पूर्वभूमिका
इस तरह मनुष्य जन्म से लेकर सत्य धर्म में रुचि तक की प्राप्ति एक-एक से कई गुणा दुर्लभ-दुर्लभतर-दुर्लभतम बताई गई है। ऐसी दुर्लभतम वस्तु पाकर हमारे लिये उसका उपयोग, परम दुर्लभ कही गयी ऐसी श्रद्धा प्राप्त करने में और उसके फल रूप वैराग्य प्राप्त करने में ही लगाने योग्य है। वह योग्यता की प्राप्ति भी एकमात्र आत्म प्राप्ति (सम्यग्दर्शन प्राप्ति) के लक्ष्य से होनी चाहिये, अन्यथा नहीं। क्योंकि एकमात्र सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न होने से ही हम अनन्तानन्त काल से इस संसार में अनन्त दुःख सहते हुए भटक रहे हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शन मोक्ष का अनुज्ञा पत्र है।
इस प्रकार हमने अनन्तानन्त बार दुर्लभ ऐसा मनुष्य जन्म आदि प्राप्त करके भी एक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न करके अनन्त काल निगोद में व्यतीत किया है। क्योंकि एक बार हम यदि निगोद से निकलकर २००० सागरोपम में मोक्ष प्राप्त नहीं करते तो हमें नियम से फिर निगोद में जाना पड़ता है।
___एक जीव का निगोद में रहने का काल (काय स्थिति) २.५ पुद्गल परावर्तन जितना है अर्थात् वह जीव २.५ पुद्गल परावर्तन काल तक लगातार निगोद में ही जन्म-मरण करता रह सकता है। २.५ पुद्गल परावर्तन काल के बाद वह जीव थोड़े काल के लिये अगर प्रत्येक एकेन्द्रिय में जाकर वापस निगोद में आये तो दूसरे २.५ पुद्गल परावर्तन काल तक वह जीव निगोद में ही जन्म-मरण करते हुए रह सकता है। किसी एक जीव के साथ ऐसा असंख्यात बार भी हो सकता है अर्थात् कोई एक जीव असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल तक एकेन्द्रिय में रह सकता है। इससे उस जीव को अनन्तानन्त काल तक अनन्तानन्त दुःख झेलने पड़ते हैं।
निगोद से निकलकर फिर से मनुष्य जन्म आदि प्राप्त करना अत्यन्त-अत्यन्त कठिन है। इसीलिये भगवान ने एकेन्द्रिय से बाहर निकलने को चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति से भी अधिक दुर्लभ बताया है। यह तथ्य याद रखें तो वर्तमान जीवन को एकमात्र आत्म प्राप्ति में ही लगाने योग्य समझेंगे। इस बात को हर दिन याद करना चाहिये। अपितु यह बात कभी भी भूलने जैसी नहीं है।
इस कारण से हम इस पुस्तक में मुक्ति के इच्छुक मुमुक्षु जीवों के लिये सम्यग्दर्शन की विधि का यथासम्भव वर्णन करने का प्रयास कर रहे हैं।
इच्छा दु:ख का कारण है। इसलिये जब तक सर्व इच्छाओं का यथार्थ शमन (नाश) न हो तब तक सुख मिलना असम्भव ही है। इच्छा नाश, सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये योग्यता