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बधमान जीवन-कोश मन में विचार किया-'अहो । ये साघु जो दाक्षिण्य बिना, निर्दय, स्वार्थ में उद्यमवंत और लोकव्यवहार से विमुख है - उन्हें धिक्कार है-इसके बनिस्बत में जो उनसे परिचित स्नेहवाला और एक ही गुरु द्वारा दीक्षित तथा धिनीत हूँ। उसका पालन करना तो दूर रहा परन्तु वे उनके सामने भी नहीं देखते हैं परन्तु मुझे उचित है कि इनसे अश्लील व्यवहार नहीं करना चाहिए क्योंकि ये साधु स्वयं के शरीर की भी परिचर्या नहीं करते हैं फिर हमारे जैसे भ्रष्ट की परिचर्या कैसे कर सकते हैं।
मेरा ऐसा विचार है कि यदि मैं इस व्याधि से मुक्त होऊँगा तो बाद में हमारी सेवा करने योग्य एक शिष्य करूंगा । वह भी ऐसा ही लिंग को धारण करे ।
इस प्रकार चितवन करते हए मरीचि देवयोग से स्वस्थ हुआ।
एक समय उसे कपिल नामक किसो कुल पुत्र से भेंट हुई । वह धर्मार्थी था फलस्वरूप मरीचि ने कपिल को आहतधर्म को कहा । उस समय कपिल ने यह प्रश्न किया कि आप स्वय' क्यों नहीं धर्म का आचरण करते हो। मरोचि ने कहा कि मैं उस धर्म को पालन करने में असमर्थ हूं। तत्पश्चात् कपिल ने कहा-तब क्या तुम्हारे मार्ग में धर्म नहीं है। इस प्रश्न से उसे जिनधर्म में आलसी जानकर शिष्य की इच्छा करता हुआ मरीचि बोला"जैन मार्ग में भी धर्म है और हमारे मार्ग में भो धर्म है। बाद में कपिल -मरीचिका शिष्य बन गया । उस समय मिथ्याधर्म के उपदेश से मरीचि ने एक कोटा-कोटो सागरोपम प्रमाण ससारा को उपार्जन किया। पापकर्म को किंचित् भी आलोचना किये बिना अन्त में अनशन युक्त मृत्यु प्राप्त कर मरोचि ब्रह्मदेवलोक में दशसागरोपम को आयुष्य वाला देव हुआ।
मिथ्यामत की प्ररुपणा-शिष्यत्व के लोभ से (भ) अण्णया य भवियव्वाए तारिसभावयास गेलण्णावसरे कविलमुणिणा पुच्छिओ-भयवं'! कहिं पुण णिरूवाओ मोक्खमग्गो ? तओ सहसक्कारेण जहट्ठियमेव णिवेइयं भयवओ समीवे । पुणोवि कविलमुणिणा भणियं-भयवं। इहपुण किंगस्थि चेव मोक्खो ! तमायण्णिऊण गेलन्नपडियरणकंखुणा समुइण्णकम्मुणा पणट्ठविवेएणं अणालोइयाऽऽगामियदुइपरंपरेणं भणिय दीहयरसंसारकारणं मिरीइणा. कविला ! एत्थं पि मोक्खमग्गो अस्थि त्ति । तओ एएण दुभासिएणं अप्पा संसारसागरे पवाहिओ त्ति ।
-"चउप्पन० पृ० ४६
(म) दुब्भासिएण इक्केण मरीई दुक्खसागरं पत्तो।
भमिओ कोडाकोडिं सागरसरिनामधिज्जाणं ।। ४३८ ।। तं मूलं संसारो नीआगुत्तं च कासि तिवइम्मि। अपडिक्कतो बंभे कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३६ ।।
-आव० निगा ४३८-४३६
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