Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ वर्धमान जीवन कोश २६५ भगवान् गौतम-कई श्रमणोपासक होते हैं-( उनमें से कोई ) उनसे ( निर्ग्रन्थों से ) इस प्रकार ( प्रतिज्ञा लेने के लिए ] कहते हैं- हम इतने समर्थ नहीं है कि मुण्डित होकर, गृहस्थ से अनगार हो सकें । पर इस पर्व तिथियों के दिन परिपूर्ण पौषध का सम्यग प्रकार से अनुपालन करेंगे. स्थूल प्राणातिपात, स्थूल असत्य, स्थूल चौर्य, स्थूल मैथून और स्थूल परिग्रह को त्याग देंगे और इच्छा का परिमाण करेंगे। [ये प्रत्याख्यान ] द्विविध-त्रिविध से ( = करना और कराना, मन, वचन, काया से ) करूगा। हम अपने लिए [ उन दिनों में ] बिना खाये, पिये और स्नान किये तथा आसन्दी पीठिका पर बिना बैठे उम अवस्था में कालगत होजायें तो क्या उन्हें सम्यक कालगत होन हाँ, कहना योग्य हैं। अर्थात् वे देवादि होते हैं और प्राण, त्रम महाकाय व चिरञ्जीवी कहे जाते हैं और श्रमणोपासक के उनकी हिंसा के त्याग हैं अत: उन्हें...प्रत्याग्यान से रहित हुआ - जो तुम बताते हो-यह तो न्यायसंगत नहीं है । (ख) भगवं च उदाहु णियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंनो! णियंठा ! इहखलु संतेगइया समणो वासगा भवंति । तसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ–णो खलु वयं संचाएमो मुंडाभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, णो दलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्टमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्ण', पोसहं सम्म अणुपालेमाणा विहरित्तए । वयं णं अपच्छिममारणं तियसलेहणाझूसणाझूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया कालं अणवक माणा विहरिम्सामो। सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं सव्वं मुसावायं सव्वं अदिण्णाद णं सव्व मेहुणं सव्व परिग्गहं पच्चक्वाइस्सामो 'तिविह' तिविहेणं मा खलु ममट्ठाए किंचिविंकरे इवा कारवेह वाकरंत समणुजाणेह वा तत्थपि पच्चक्खाइस्सामो। तेणं अभोच्चा अपिच्वा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोकहिता ते तह कालगया किं वक्तव्बं सिया ? सम्म कालगय त्ति कर व्वं सिया। ते पाणा वि वुच्चति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया, चिरटिइया। ते बहुतरगा पाण. जेहिं समणोवामगन्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उठ्ठियस्स पडिविरयस्स जं0 तुम्भे वा अणो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केड परियाए जसि समणोवास गस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते । अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ/मू २१ भगवान् गौतम कई भ्रमणोपासक निग्रंथों से कहते हैं कि हम न दीक्षित होने में समर्थ हैं औरन हममें श्रावक के वन पालने की सामर्थ्य है। (अब यही इच्छा है कि) हम अन्तिम मरण समयकी संलेखना में आत्मा को लगाकर भत्तपान का त्याग करके मरण को वाञ्छा नहीं करते हुए रहेंगे। पूर्णतः हिंसा से लगाकर पूर्णतः परिग्रहतकका त्रिविध. त्रिविध प्रत्याख्यान करेंगे। वे ऐसा ही करते हैं। उन तथा कालगत को क्या सम्यग कालगत कहना योग्य है। हाँ योग्य है। अर्थात् वे देवादि होते हैं। तब वे त्रमही कहे जाते हैं और त्रम जीव की हिमाके श्रमणोपासक को त्यागहे ही। अत: उन के लिये एकभी प्राणीको हिमासे राहत अवस्था नहीं बताना युत्ति-युक्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392