Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 366
________________ ३१६. वधमान जीवन कोश क्या बात करनी चाहिए ! राज्य के सुख में प्रमादी बने हुए हे नाथ । तीन लोक के पूजित चरम तीर्थंकर श्री वीर भगवंत इस शहर में रहते हैं-यह तुम जानते हो। वे किसी अभिग्रह को ग्रहण किये हुए घर-घर फिरते हैं परन्तु मिक्षा को ग्रहण किये बिना ही वापस चल देते हैं । यह तुम जानते हो ? मुझे, तुम्हें और अपने अमात्य को धिक्कार है कि जहाँ श्री वीरप्रभु अज्ञात अभिग्रह के द्वारा इतने सब दिन तक भिक्षा बिना रहे ।" प्रत्युत्तर में राजा ने कला-हे शुभाशय । हे धर्मचतुर ! तुमको धन्यवाद है। मेरे जैसे प्रमादी को तुमने बहुसारी शिक्षा-सीख योग्य समय में दी। अब मैं प्रभुका अभिग्रह जानकर प्रात:काल उन्हें पारणा कराऊंगा। ऐसा कहकर राजा ने तत्काल मंत्री को बुलाया और कहा कि हे भद्र ! हमारी नगरी में श्री वीरप्रभु चार मास होने पर भी भिक्षा ग्रहण किये बिना रहे । इमसे अपने को धिक्कार है। अतः तुम्हें जैसा उचित लगे वसा उपायकर उनका अभिग्रह जान लेना चाहिये कि जिससे मैं उस अभिग्रह को पूर्णकर हमारी शुद्धता के लिए पारणा कराऊ । प्रत्युत्तर में मंत्री ने कहा कि हे महाराज ! उनका अभिग्रह जाना जाय ऐसा नहीं है---मैं भी उससे खेदित हूं अतः उमका कोई उपाय सोचना चाहिये। तत्पश्चात् राजा ने धर्मशास्त्र में विचक्षण तथ्यकंदी नामक उपाध्याय को बुलाकर कहा कि-हे महामति ! तुम्हारे शास्त्र में सर्व धर्मों के आचार कथित है। उनमें से श्री जिनेश्वर के अभिग्रह की बात मुझे कहो। प्रत्युत्तर में उपाध्यायमे कहा-हे राजन् ! महर्षिगण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये चार भेद से बहुत अभिग्रह कहे हैं। वर्धमान महावीर ने जो अभिग्रह ग्रहण किया है। वह विशिष्ट ज्ञान के बिना कभी भी नहीं जाना जा सकता है। तत्पश्चात् राजा ने नगरी में यह उद्घोषणा की कि-अभिग्रह को ग्रहण किये हुए श्री वीरप्रभु भिक्षा को लेने के लिए आये-तब लोग अनेक प्रकार को भिक्षा दो। राजा की आज्ञा और श्रद्धा से सर्वलोगों ने वमा किया। तथापि अभिग्रह के पूर्ण न होने के कारण प्रभु ने किसी भी स्थान से भिक्षा ग्रहण नहीं की। __इस प्रकार भिक्षा रहित रहते हुए भो: विशुद्ध ध्यान द लीन रहे हुए भगवान अम्लान मुख रहते थे और लोग प्रतिदिन लज्जा और खेद से विशेष आकल-व्याकुल होकर भगवान् को देखते रहते थे। इस अवधि में शतानिक राजा सैन्य के साथ वटोलिओं की तरह वेग से एक रात्रि में जाकर चंपानगरी को । घेर लिया। चंपापति दधिवाहन राजा उससे भय को प्राप्त होकर भाग गया। अति बलवान् पुरुष से रूधे हुए मनुष्य को भागने के सिवाय अन्य कोई स्वरक्षा का उपाय हो नहीं है। तत्पश्चात रातानिक राजा ने विचार किया कि-इस नगरी में से जो लेना हो वह लेना चाहिए। ऐसी स्वय को सैन्य में आघोषणा करायी । फलस्वरूप उसके सुभट चंपानगरी को स्वेच्छापूर्वक लूटने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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