Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 329
________________ वर्धमान जीवन - कोश [ विवेचन - केवल ज्ञान की प्राप्ति न होने से खिन्न बने हुए गौतम स्वामी को आश्वासन देने भगवान् महावीर स्वामी, गौतम स्वामी के साथ अपना चिरकाल का परिचय बताते हुए कहते हैं कि खिन्न मत हो । इस शरीर के छूटने पर अपने दोनों एक समान सिद्ध हो जायेंगे । ] २८२ राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई । श्रमण भगवान् स्वामी ने इस प्रकार भगवान् गौतम को संबोधित करके इस प्रकार कहा - हे गौतम! तू मेरे साथ चिर संश्लिष्ट चिरकाल से स्नेह से बद्ध है । हे गौतम! तू मेरे साथ चिरसंस्तुत है ( लम्बे काल के स्नेह से तूने मेरी । हे गौतम! तू मेरे साथ चिर-परिचित है ( तेरा मेरे साथ लम्बे समय से परिचय रहा है ) हे गौतम चिर सेवित या चिर प्रीत है । ( तू लम्बे काल से मेरी सेवा की है अथवा साथ प्रोति रखी है ) हे गौतम चिरानुगत है ( चिरकाल से तूने मेरा अनुसरण किया है) हे गौतम! तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है ( साथ चिरकाल से अनुकूल बर्ताव रहा है ) हे गौतम! इससे ( पूर्व के ) अनन्तर देवभव में इससे अनन्तर तेरा मेरे साथ संबंध था। अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छूट दोनों तुल्य ( एक सरीखे ) और एकार्थ ( एक प्रयोजन वाले अथवा एक सिद्ध क्षेत्र में रहने वाले ) विशेष किसी प्रकार के भेद-भाव से रहित हो जायेंगे । • ३ भगवान् के परिनिर्वाण के दिन ज्येष्ठ अनगार गौतम को केवल ज्ञान- केवल दर्शन समुत्पन्न परिनिर्वाण के समय गौतम स्वामी निकट में नहीं थे । .४ जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्वप्पहीणे तं रयपि गोयसस्स इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अतेि अ केवलवरनाणदंसणे समुपपन्ने । जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर ने सर्व दुःखों का अन्त किया - उस रात्रि में उनके पट्टशिष्य के इन्द्रभूति अनगार का भगवान् महावीर के प्रति प्रेम बंधन टूटा । फलस्वरूप इन्द्रभूति अनगार को ब यावत् केवलज्ञान- केवलदर्शन उत्पन्न हुआ । . ५ अग्निभूति की अवगाहना समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अणगारे गोयमे गोते जाव पज्जुवासमाणे । -भग० श श्रमण भगवान् महावीर के दूसरे अंतेवासी अग्निभूति ( द्वितीय गणधर ) की अवगाहना सात हाथ • ६ नोट - जैनागम किंवा श्वेताम्बर ग्रन्थों तथा दिगम्बर ग्रन्थों में भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों उपलब्ध होते हैं उनमें परस्पर कई नामों में मेल नहीं खाता। दोनों परम्परा के अनुसार ग्यारह गणधरों प्रकार हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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