Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 250
________________ वर्धमान जीवन - कोश २०३ मनुष्यों को कौन नहीं जानता ? परन्तु जो हमारे हृदय में स्थित संशय को जानता है और उसे स्वयं की ज्ञानसंपत्ति से छेद डालता है तो वह वास्तव में आश्चर्यकारी है - ऐसा मैं मानता हूँ । इस प्रकार हृदय में विचार करते हुए — ऐसे संशययुक्त इन्द्रभूति को भगवान् ने कहा- हे विप्र ! जीव है या नहीं। ऐसा तुम्हारे हृदय में संशय है । परन्तु हे गौतम! जीव है, वह चित्त; चैतन्य, विज्ञान और संज्ञादि लक्षणों से जाना जा सकता है। यदि जीव नहीं होता तो पुण्य-पाप का पात्र कौन होता ? और तुम्हारे इस याग, दानादि करने का निमित्त भी क्या होता ? इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर इन्द्रभूति मिध्यात्व के साथ संदेह को छोड़ दिया और भगवान के चरणों में नमस्कार करबोला कि - हे स्वामी । ॐचे वृक्ष को माप लेने के लिए नीचे पुरुष की तरह मैं दुर्बुद्धि आपकी परीक्षा लेने आया था । हे नाथ ! मैं दोषयुक्त हूँ । ऐसा होते हुए भी सम्यग् प्रकार से मुझे प्रतिबोधित किया । अब मैं संसार से विरक्त हुआ -- मुझे दीक्षितकर अनुग्रहित करो । फलस्वरूप जगत्गुरू वीरप्रभुने — इन्द्रभूति को स्वयं का प्रथम गणधर होगा - ऐसा जानकर पाँच सौ शिष्यों के साथ स्वयं दीक्षित हुआ । (ग) उपनीतं कुबेरेण धर्मोपकरणं ततः । त्यक्तसंगोऽप्याददानो गौतमोऽथेत्यचिन्तयत् ||८४|| निरवद्यत्रतत्राणे यदेतदुपयुज्यते । वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यं धर्मोपकरणं हितत् ||८५|| छद्मस्थैरिह षड्जीवनिका ययतनापरैः । शक्येत कथमन्यथा ॥ ८६ ॥ जलज्वलनवायूर्वीतरुत्रसतया बहून् ! धर्मोपकरणं विना ॥१॥ गृहीतोपकरणोऽपि करणत्रयदूषितः । असंतुष्टः स आत्मानं प्रतारयति केवलम् ||१२|| इन्द्रभूतिर्विभव्यैवं शिष्याणां पंचभिः शतैः । समं जग्राह धर्मोपकरणं त्रिदशार्पितम् ||१३|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ सम्यक् प्राणिदयां कर्तुं जीवांस्त्रातुं कथमलं ग्रहण उसी समय इन्द्रभूति की दीक्षा के समय कुबेरने चारित्रधर्म के उपकरणों को लाकर दिये । निसंग होते उसे करते हुए गौतम ने विचार किया "निरवद्य व्रत की रक्षा करने में ये वस्त्र पात्रादिक उपयोग में आते हैं फलस्वरूप ग्रहण करने के योग्य हैं। क्योंकि वे धर्म के उपकरण है । उसके बिना छह प्रकार की जीवनिकाय की यतना करने में तत्पर ऐसे छद्मस्थ मुनियों की सभ्यग्रूप से जीव दया का कैसे प्रतिपालन हो सकता है । पृथ्वीकाय आदि जीवों की धर्मोपकरण के बिना कैसे रक्षा हो सकती है । उपकरण ग्रहण करने पर भी जो स्वयं को आत्मा को मन, वचन - काल से दूषित और असंतोषी रखता है तो वह केवल आत्मा के साथ धोखेबाजी करता है । इस प्रकार विचार कर इन्द्रभूति पाँच सौ शिष्यों के साथ देवों के द्वारा अर्पित किये हुए धर्मोपकरणों को ग्रहण किया। (घ) मिथ्यात्वारातिसंतानं हन्तुं मोहादिशत्रुभिः । सार्धं विप्राग्रणीर्मुक्त्यै दीक्षामादातुमुद्ययौ || १४७|| ततस्त्यक्त्वान्तरे संगान् दश बाह्य चतुर्दश । त्रिशुद्ध या परया भक्त्यार्हतीं मुद्रां जगन्नुताम ॥ १४८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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