Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 369
________________ ३२२ वधमान जीवन-कोश इस प्रकार दूसरे दिन तीसरे दिन भी चंदना को नहीं देखा । फलस्वरूप शंका और कोप से आकुल-व्याकुल हुआ सेठने परिजन को पूछा-अरे सेवको ! तुम कहो कि हमारी पुत्री चन्दना कहाँ है ? यदि तुम जानते हुए नहीं कहते हो तो मैं तुम सबों का निग्रह कर दूंगा। यह बात सुनकर किसी वृद्धदासी ने चिंतन किया कि मैं बहुत वर्षों से जीवित हूँ, अब मेरी मृत्यु भी नजदीक है। इसलिये मैं कदाचित् का वृत्तांता प्रकाशित कर दू तो मूला मेरा क्या कर सकती है। यह विचार कर उसने मूला। और चंदना की सारी बात सेठ को कही। बाद में वह वृद्धा जाकर जहाँ चंदना को कोठे में बंद किया था उस घर को सेठ को बताया । अस्तु धनावह सेठ स्वयं की मेल से उसका द्वार खोला। वहाँ चोर से खींची हुई लता की तरह क्षुधा-तृष्णा से पीड़ित, नवीन पकड़ी हुई हस्तिनी की तरह बेड़ी से बांधी हुई भिक्षु की तरह मस्तिष्क मुंडित की हुई और जिनके नेत्रकमल अश्रु से पूरित है-ऐसी चंदनाको धनावह सेठ ने देखो। सेठने उसे कहा कि वत्स ! तुम स्वस्थ थी। ऐसा कहकर नेत्र में से अश्रु गिराते सेठ उसे भोजन कराने के लिए रसवती लेने के लिए चपल गति से रसोई घर में गया परन्तु दैवयोग से वहाँ कुछ भी अवशेष भोजन देखने में नहीं आया। इस कारण सुपडे के खोणे में से पड़े हुए कुल्माष उसने चंदना को दिया और कहा-हे वत्स ! मैं तम्हारी बेड़ो तोड़ने के लिए लुहार को बुलाकर लाता हूं। वहाँ तक तुम इस कुल्माष का भोजन करो। इस प्रकार कहकर सेठ बाहर गया। इधर चंदना खड़ी-खड़ी विचार करने लगी कि-अहो! हमारा राजकुल में जन्म कहाँ और इस समय ऐसी स्थिति कहाँ ? इस नाटक जैसे संसार में क्षण में वस्तु मात्र अन्यथा हो जातो है। यह सब मैंने अनुभव किया है । अहो ! अब मैं क्या उसका प्रतिकार करू। आज मुझे अष्टम तप के पारणे में यह कुल्माष प्राप्त हुआ है परन्तु यदि कोई अतिथि आये तो उसे प्रतिलाभित कर फिर भोजन करू'। अन्यथा भोजन नहीं करूगी। यह विचार कर उसने द्वारपर दृष्टि दी। उस समय तत्काल श्री वीरप्रभु भिक्षा के लिए फिरते-फिरते वहाँ आये । उनको देखकर-अहो ! ये कैसे शुद्ध पात्र, अहो ! ये कैसे उत्तम पात्र। अहो ! मेरे पुण्य का संचय कैसा है कि जिस कारण से यह कोई महात्मा भिक्षार्थ यहाँ अचानक प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार चिंतन कर चंदनबाला ने बुल्माष वाला सुपडु हाथ में लेकर एक पर उमरा के अन्दर और एक पैर बहार निकाल कर खड़ी रही। बेड़ी के कारण उमरा को उल्लंघन करने में असमर्थ ऐसी बाला वहाँ रहकर आद्र हृदय वाली भक्ति से भगवान् को बोलीं-हे प्रभो! क्या यह भोजन आपके लिये अनुचित है तथापि आप परोपकार में तत्पर है। इस कारण आप इसे ग्रहण कर मेरे पर अनुग्रह करना चाहिये। ___ द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से शुद्ध प्रकार से अभिग्रह पूर्ण हुआ जानकर प्रभु ने कुस्माष को भिक्षार्थ स्वयंका हाथ प्रसारित किया। उस समय अहो ! मुझे धन्य है। इस प्रकार ध्यान करती हुई च दना सुपडे के एक खुणे से वह कुल्माष प्रभु के हाथ में दिया। भगवान् का अभिग्रह पूर्ण होने से देव प्रसन्न होकर वहाँ आये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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