Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ वर्धमान जीवन कोश ३०५ हो सकता है। यदि प्रत्याख्यानी श्रावक की जीवन दशा में ही सभी नारकी आदि त्रस प्राणी उच्छिन्न हो जायँ परन्तु पूर्वोक्त रीति से यह बात सम्भव नहीं है तथा स्थावर प्राणी अनन्त है अतः अनन्त होने के कारण असंख्येय त्रस प्राणियों में उनकी उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है- यह बात अति प्रसिद्ध है। इस प्रकार जब कि त्रस और स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होते हैं तब आप तथा दूसरे लोगों का यह कहना कि 'इस जगत में ऐसा एक भी पर्याय नहीं है जिनमें श्रावक का एक त्रस के विषय में भी दण्ड देना वजित किया जा सके। यह सर्वथा अयुक्त है। .१३ उपसंहार पद.१ भगवं च उदाहु -आउसंतो! उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दंस, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [ उट्ठिए ? ], से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ। जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिमासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए १] से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ । ।३१।। तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए । ॥३२॥ भगवं च णं उदाहु-आउसंतो! उदगा ! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियंधम्मियं सुवयणं सोचा णिसम्म अप्पणो चेव सुहमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लभिए समाणे सो वि ताव.तं आढाइ 'परिजाणेइवंदइ णमंसइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । -सूय० श्रु २/अ ७/सू ३१, ३२-३३ भगवान् गौतम-आयुष्मान उदक ! जो श्रमण-माहण की व्यर्थ निन्दा करते हैं, वे भले ही उनसे मैत्री रखते हो या पाप कर्म को निःशेष करने के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र से युक्त हों तो भी उनका वह (कर्तव्य) परलोक को बिगाड़ने के लिए ही है और जो श्रमण-माहण की व्यर्थ निन्दा नहीं करता है, उनसे मैत्री रखता है और पाप कर्मों के विनाश के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त है -उनके (कर्तव्य) परलोक की विशुद्धि के लिए हैं। ___ इस [प्रकार सुनने के बाद उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम का अनादर करते हुए, जहां से आया था वहीं जाने को उद्यत हुआ। तब भगवान् बोले-आयुष्मान् उदक ! तथा भूत श्रमण या ब्राह्मण के पास से आर्य धर्म का एक भी सूवचन सुनकर-समझकर, जो सुक्ष्म प्रतिलेखन-विचार करने से उसे अपने लिए वे श्रेष्ठ योगक्षेम रूप पद-वाक्य प्राप्त कराने वाले प्रतीत होते हों तो वह व्यक्ति उनका आदर करता है, उपकार मानता है, उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है। सत्कार-सम्मान देता है, उन्हें कल्याणकारी, मंगलकारी, देवस्वरूप समझकर उनकी पर्युपासना करता है । .२ तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एव वयासी-एएसिणं भंते ! पदाणं पुव्वि अण्णाणयाए अस्सवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अदिवाण अस्सुयाणं अमुयाणं अविण्णायाणं अणिज्जूढाणं अव्योगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अणिसिट्ठाणं अणिवूढ.णं अणुवहारियाणं एयम8 णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392