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वर्धमान जोवन कोश
तओ तमायणिऊण भरहचक्कवट्टी उवणीयणाणाविहाहारो साहुगो णिमंतेइ x x x तओ असमंज - सपरिहरणत्थ' कागणिरयणेण धिज्जाइयाणमुपपत्ति काऊ विणिओइयाहारो अणुण्गाययमरहच्छेत्त साहुपया मिरोई (इ) - वंदणत्थं गओ । वंदिओ य गुरुकहिउबट्टणपुत्र्वं मिराई। मिरीचिणा वि 'तित्थयरी अपच्छिमो भविस्सामि त्ति जाणिऊण कयमुत्तुणत्तणं, गहिओ माणत्थंभेण तप्पच्चयं च बद्ध णीयागोयं । भगवओ समीवे समइविरइयलिंगो य विहरिउमादत्तो । उवसामेइ बहुविहे हिं पयारेहिं पाणिणो ।
वसन्तेय पवज्जमुवट्ठिए जयगाहस्स सोमत्तणेण उवणेति ।
चउपन्न० पृ० ४६
एक समय भगवान् ऋषभदेव पुनः विनोता नगरों के समीप पधारे । वहाँ भरत चक्रवर्ती भगवान् के पास आकर भावी अरिहंतादि से संबंधित प्रश्न पूछे । प्रत्युत्तर में भगवान् ने भविष्यत् में होने वाले अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव, और बलदेव बताये । तत्पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने पुनः प्रश्न किया - हे नाथ | आपकी इस सभा में इस भरत क्षेत्र में वर्तमान चौबोसो में तोर्थंकर होते वाला क्या कोई व्यक्ति है । प्रत्युत्तर भगवान् ने मयीचि को भावी तीर्थंकर बताकर बोले – यह तुम्हारा पुत्र मरीचि इस भरत क्षेत्र में वीर नामक अंतिम तोर्थंकर होगा तथा पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव और महाविबेह क्षेत्र में मूकापुरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा ।
यह बात सुनकर भगवान् की आज्ञा लेकरा भरत मरीचि के पास आये और तीन प्रदक्षिणा देकर उसे वन्दन किया। बाद में कहा कि - भगवान् ऋषभदेव के कथनानुसार तुम इस भरत क्षेत्र में चरम तीर्थंकरत्व को प्राप्त होओगे । पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव और महाविदेह क्षेत्र में मुकानगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होओगे । तुम सन्यासी हो - इस कारण तुम्हें मैं वन्दन नहीं करता हूँ परन्तु भावी तीर्थंकर हो इस कारण मैं तुम्हें वदन करता हूँ ।
इस प्रकार कहकर विनयवान् भरत चक्रवर्ती भगवान् ऋषभदेव को पुनः वंदन हर्षित होकर विनीता नगी आये ।
इधर मरीचि - भरत चक्रवर्ती के पास सारी हकीकत जानकर हष से तीन बार त्रिपदी कर नाचने लगा और उच्च स्वर से कहने लगा कि - पोतनपुर में मैं प्रथम वासुदेव होऊँगा, मूकानगरी में चक्रवती होऊँगा और तत्पश्चात् चरम तीर्थंकरत्व को प्राप्त होऊँगा । मुझे दूसरों की क्या अपेक्षा है । मैं वासुदेवों में प्रथम बासुदेव, मेरे पिता चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती और मेरे पिता के पिता तीर्थकरों में प्रथम तीर्थंकर है। अहो | हमारा कुल कैसा उत्तम है । इस प्रकार बारम्बार भुजास्फोट कर जातिभेद करते हुए मरीचि ते नीच गो कर्म का उपार्जन किया ।
मरीचि का शिष्यत्व ग्रहण
(ब) ऋषमस्वामि निर्वाणादध्वं सार्धं स साधुभिः ।
विहरन प्रबोध्य भव्यान प्राहिणोत् साधुसन्निधौ ॥ ६० ॥
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