Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 300
________________ वर्धमान जोवन-कोश २५३ ... (ग) तेणं कालेणं तणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्म णामं अणगारे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे, वण्णओ, चउदसपुव्वी, चउनाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणुपुब्धि चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्द चेइए x x x अहापडिरूवं जाव विहरइ। परिसा निग्गया। - सच्चा निसम्म जामेव दिसं पाउभूया, तामेव दिसं पडिगया । -विवा० श्रु ५/अ १ / सू २ एक समय की बात है कि-ग्रामानुग्राम विहार करते हुए उस समय, श्री सुधर्मा स्वामो अनेक गुण गणों से मण्डित, शांत, दांत और चतुर्दशपूर्वक धारी थे, उस उद्यान में अपने ५०० शिष्यों सहित पधारे। नगरवासियों को ज्योंही इस उद्यान में सुधर्मा स्वामी के पधारने की खबर पड़ी त्योंही नगरीजन सब के सब उनके वन्दन दर्शन एवं उनसे धर्म श्रवण करने के निमित्त बड़ी ही उत्कंठा से बहां पर आये, सुधर्मा स्वामी ने उपदेश दिया। उपदेश सुनकर वे सब अपने अपने स्थान गये ॥ सू. २ ॥ (घ) तेणं कालेणं तेण समएणं समण स भगवओ महावीरस्स अतेवासी अज्जसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी। जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुव्वि चग्माण ( गामाणुगामं दुइजमाणे ) जेणेव रायगिहे जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेण जाव विहरड। परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया । -निरया० व १ / अ १ / सू ३ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा पांच सौ अनगारों के साथ तीथंकर परम्परा से विचरते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हुए राजगृह नगर में दूतिपलास चैत्य में पधारे। (च) तेणं क.लेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मे थेरे जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणपुब्धि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विरहमाणे जेणेव चपा नयरी जेणेव पुण्ण भद्दे चेइये तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया जाव परिसा पडिगया। -अंत० व १ / सू १ उस काल उस समय में स्थविर आर्य सुधर्मा स्वामी पाँच सौ अनगारों के साथ तीर्थंकर परम्परा से विचरते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हए, उस चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे। x x x (छ) आर्यिका प्रतिजागरको वा 'साधुविशेषः समयप्रसिद्धः। -स्थानांगसूत्र वृत्ति ४-३-३२३ साध्वियों के प्रतिजागरक को गणधर कहा गया है। सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणइरा दुवालसंगिणो चौद्दसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नयरे मासिएणं भत्तिएणं, अपाणएणं कालगयाजाव :सव्वदुक्खप्पहीणा । धेरे इंदभुई थरे अजसुहम्मे सिद्धिंगए महावीरे पच्छादोन्नि चि परिणिव्वुया । -कप्प० सू २०३ भगवान् महावीर के सभी ग्यारहों गणधर द्वादशांगवेत्ता, चतुर्दश-पूर्वी तथा समस्त गणि पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशनपूर्वक वे कालगत हए। सर्वदःखमहीण बने । अर्थात् मुक्त हए । स्थविर इन्द्रभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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