Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 370
________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२३ नोट – इस समय चन्दना के नेत्रमें आँसु नहीं थे अतः प्रभु अभिग्रह की अपूर्णता जानकर वापस पश्चारे । फलस्वरूप चन्दना को पारावार खेद हुआ । अतः इससे आँखों में अश्रुधारा बह निकली प्रभु अभिग्रह पूर्ण हुआ जान कर वापस पधारें | चंदना से हाथ में दान लिया । यह अन्यत्र कथन है । * 1 ( ड ) कदाचिच्चेटकाख्यस्य नृपतेश्चन्दनात्रिधाम् । सुतां वीक्ष्य वनक्रीडासक्तां कामशरातुरः । ३३८ ।। कृतोपायो गृहीत्वैनां कश्चिद्गच्छन्नमश्चरः । पश्चाद्भीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ॥ ३३६ ॥ वनेचरपतिः कश्चित्तत्रालोक्य धनेच्छया : एनां वृषभदत्तस्य वाषिजस्य समर्पयत् ॥३४०|| तस्य भार्या सुभद्राख्या तया संपर्कमात्मनः । वणिजः शंकमानासौ पुराणं कोद्रवौदनम् ||३४१ || आरनालेन संमिश्रं शरावे निहितं सदा । दिशती श्रृंखलाबन्धभागिनीं तां व्यधाद्रुषा || ३४२ || - उत्तपु० पर्व ७४ (ढ) अथ चेटकराजस्य चन्दनाख्यां सुतांसतीम् । वनक्रीडासमासक्तां कश्चित्कामातुरः खगः ॥ ८४ ॥ वीक्ष्योपायेन नीत्त्राशु गच्छन् पापपरायणः । पश्चाद्भीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ||८५|| स्वैनः कर्मोदयं ज्ञात्वा सा तत्रैव महासती । जपन्ती सन्नमस्कारान् धर्मध्यानपराभवत् ॥ ८६ । वनेचरपतिः कश्यित्तामालोक्य धनेच्छया । नीत्वा वृषभसेनस्य समर्पयवणिक्पतेः । ८७|| श्रेष्ठभार्या सुभद्राख्या दृष्ट्वा तद्रूपसंपदः । भविता मे सपत्नीयमिति शंकां व्यधाद् हृदि ॥८८॥ ततस्तद्रूपहान्यै सा पुरणं कोद्रवोदनम् । आरनालेन सम्मिश्रं शरावे निहितं सदा ॥८॥ ददती चन्दनयाश्चशृंखला बंधनं व्यधात् । तत्रापि सा सती दक्षा नात्यजर्द्धमभावनाम् ॥ ६० ॥ —वीरवर्धच० अधि १३ जब भगवान् महावीर छ मस्थावस्था का वारहवाँ वर्ष व्यतीत कर रहे थे उस समय चेटक राजा की न कोड़ा में आसक्त चंदना नामकी सती पुत्री को देखकर कोई कामातुर और पाप-परायण विद्याधर किसी उपाय से उसे शीघ्र ले उड़ा और आकाश मार्ग से जाते हुए उसने अपनी भार्या के भय मे पीछे किसी महाअटवी में उसे छोड़ दिया । तब वह महासती अपने पाप कर्मोदय को जानकर पंचनमस्कार मंत्र को जपती हुई उसी अटवी में धर्माध्यान में तत्पर होकर रहने लगी । वहाँ पर किसी भीलों के राजा ने उसे देखकर धन प्राप्ति की इच्छा से ले जाकर वृषभ सेन नाम के वेश्यपति को सौंप दी। सुभद्रा नाम की उस सेठ की स्त्री ने उसकी रूप-संपदा को देखकर 'यह मेरी सौत बनेगी' ऐसी शंका को मन में धारण किया । तब उसने उसके रूप सौन्दर्य की हानि के लिए ( उसके केश मुंड़ा दिये और ) सांकल से बांधकर ( उसे एक कालकोठरी में बन्द कर दिया ) तथा आरनाल (काँजी) से मिश्रित कोदो का भात मिट्टी के सिकोरे में रखकर उसे नित्य खाने को देने लगी। ऐसी अवस्था में भी उन सती ने अपनी धर्म भावना को नहीं छोड़ा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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