Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 343
________________ २६० वर्धमान जीवन-कोश (ग) भगवं च णं उदाहु-संतगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा–महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपापजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मपलज्जणा अधम्मसील-समुदाचारा अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, ‘हण' छिंद, भिंद विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहम्सिया उक्कचण-वंचण-माया-णियडि-कूड-कवड-साइसपओगबहुला दुस्सीला दुब्बया दुप्पडियाणंदा असाहू । सव्वाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ मुसावायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ अदिण्णादाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्याओ मेहुणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया ज.वजोवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरण ताए दडे णिक्वित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए दोग्गइगामिणो भवंति । ते पाणावि वुच्चंति, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविग्यस्स जं णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वयह–णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्वित्ते। अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ। - सूय० श्रु २/अ७/सू २२ भगवान् गौतम-कई मनुष्य महेच्छ, महाहिंसक, महापरिग्रही, अधार्मिक, दुष्पर्यानन्द होते हैं अत: पूरी तरह से जीवन भर तक परिग्रह आदि से अप्रतिविरत रहते हैं। श्रमणोपासक के मृत्युपर्यन्त (वस होने से) उसकी हिसा के त्याग हो जाते हैं। वे अधार्मिक पुरुष आयुष्य पूर्ण कर लेते हैं और यहां से अपने पाप कर्म को साथ लेकर दुर्ग त (नरक) में चले जाते हैं। तब भी त्रस कहे जाते हैं। जिनकी हिसा से श्रमणोपासक निवृत्त होते हैं । अतः तुम्हारा कथन युक्तियुक्त नहीं है । (घ) भगवं च उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहाअणारंभा अपरिगगहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मपल्लोई धम्मपलजणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । सुसीला. सुव्वया सुप्पडिय गंदा सुसाहू। सव्याओ पाणाइवायाओं पडिविण्या जावज्जीवाए, सब्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावजीवाए. सब्बाओ अदिण्णादाणाओ पडिविण्या जावज्जोवाए. सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सयाओ परिगहाओ पडिविरया जावज्जीचाए, जेहिं समणावासगरम आयाणसो आमरणताए हंडे णि किवते, ते तओ आउगं विप्पन्हं ति, विप्पजहिता ते तओ भुज्जो सगमयाए सोग्गष्ठ गामिणो भवंति। ते पाणावि बुरच ति जाव णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ ७/५ -३ भगवान् गौतम--कई मनुष्य अहिंसक, अपरिग्रही, धार्मिक, धर्मानुगामी यावत् आजोवन पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं-जिनकी हिमा श्रमणोपासक मे आदानशः छूट जाती है। वे धार्मिक व्यक्ति आयुष्यपूर्ण करके सद्गति (देवगति) में जाते हैं । अतः वहां भी प्राण त्रम कहे जाते हैं। उन प्राणियों को श्रावकव्रत ग्रहण के दिन से लेकर मृत्यु पर्यन्त दण्ड नहीं देता है अतः श्रावक का व्रत सविषय है निविषय यहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392