Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 367
________________ ३२० वर्धमान जीवन-कोश इधर दधिवाहन राजा की धारणी नाम की-राणी व उसकी पुत्री वसुमति को कोई ऊंटवाला हरण कर ले गया। - शत्रु रूप कुमुद में सूर्य जैसा शतानिक राजा कृतार्थ होकर सैन्य के परिवार के साथ कौशाम्बी नगरी भाया । - धारिणी राणी के रूप से मोह को प्राप्त हुआ-पहले सुभट लोगों के सम्मुख उच्च स्वर से कहने लगा कियह जो प्रौढ़ रूपवती स्त्री है वह मेरी होगी और इस कन्या को कौशाम्बी के चौक में जाकर बिक्री कर दूंगा। यह बात सुनकर धारिणो देवी ने चिन्तन किया f-ने चन्द्र से भी निर्मल वंश में जन्म लिया है तथा महान् वंश में उत्पन्न हुए दधिवाहन राजा को पत्नी हूं। और जैन धर्म मेरे में परिणत हुआ है तो फिर इस प्रकार के अक्षर को सुनकर भी मैं पाप का भाजन होकर अभी भी जीवित हूं। इस कारण मुझे धिक्कार है। अरे स्वभाव चपल ऐसा जीव अभी भी देह में वे से स्थित है। यदि तुम अपने आप देह से अलग नहीं होते हो तो-माला में से पक्षी को निकाला जाता है उसी प्रकार मैं तुमसे बलात्कार निकालूंगी। इसप्रकार तिरस्कार से मानो उद्वेग को प्राप्त हुआ हो वसे खेद से पूटी गए हए उसके हृदयमें से उसके प्राण क्षण भर में निकल गए। उसे मृत्यु को प्राप्त हुआ देखकर ऊंटवाले सुभट ने खेद किया-“ऐसी सती स्त्री के लिए मैंने कहा कि यह मेरो पत्नी होगी-यह मैंने बहुत खराब कार्य किया है अतः मुझे भिक्कार है। आंगुल से बताते हुए कुष्मांडफल ( कोला) की तरह हमारी दुष्ट वाणी से यह सतो जैसे मृत्यु को प्राप्त हुई है उसी तरह कदाचित् यह कन्या भी मृत्यु को प्राप्त होगी। अतः इसे खेद नहीं उत्पन्न करना चाहिए। ऐसा विचार कर उस कन्या को मधुर वचन के द्वारा बुलाता हुआ कौशाम्बी नगरी आया। और उसे राजमार्ग में बिक्री करने के लिए खड़ी किया। भाग्यवशात् वहाँ धनावह सेठ का आगमन हआ। देवयोग से-उसने वसमती को देखकर विचार में पड गया। इस कन्या की आकृति देखने से ऐसा महसूस होता है कि यह किसी सामान्य मनुष्य की पुत्री नहीं है परन्तु युथ में से भ्रष्ट हुई मृगी जैसे पारधि के हाथ में आती है उसी प्रकार माता-पिता से विखुटी पड़ी हुई यह कन्या इस निर्दय मनुष्य के हाथ में आयो है-ऐसा जाना जाता है। उसने यहाँ मूल्य लेकर बिक्री के लिए लाया है। इससे यह बिचारी जरूर किसी हीन मनुष्य के हाथ में चली जायेगी। अतः इस मनुष्य को बहुत धन देकर मुझे ही इस कृपा-पात्र कन्या को खराद करना चाहिए। स्वयं की पुत्री को तरह मैं उसको उपेक्षा करने में अशक्त है। किसी भी प्रकार की रूकावट के बिना हमारे घर में रहते हुए दैवयोग से इस बाला का उसके स्वजन-वर्ग का संयोग भी हो जाएगा। - इस प्रकार विचार कर धनावह सेठ ने उस सुभट को इच्छा-प्रमाण उसका मूल्य देकर अनुकम्पा से उम बाला को स्वयं के घर ले आया। उसने स्वच्छ बुद्धि से पूछा कि-हे वत्स ! तुम किसकी कन्या हो और तुम्हारा स्वजन वर्ग कौन सा है। इसका उत्तर दो, भय को प्राप्त मत होना। तुम मेरी पुत्री हो। वह स्वयं के कुल को अति महत्ता होने के कारण कुछ भी नहीं बोलती हुई-सांयकाल में कमलिनी रहती है वैसे अधोमुख कर खड़ी रही। बाद में सेठ ने स्वयं की पत्नी मला को कहा-प्रिया! यह कन्या अपनी दुहिता है उसकी अति यत्न से पुष्प की तरह लालन-पालन करो। इस प्रकार श्रेष्ठी के वचन से वह बाला वहाँ स्वयं के धरकी तरह रही। और बालचंद्र को लेखा की तरह सब के नेत्रों को आनंदित करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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