Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 310
________________ वर्धमान जीवन - कोश २६३ तथाहि—संसारिजीवः कषायादियुक्तः कषायादियुक्तश्च कर्म्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते इति तस्य कर्म्मबन्धोपपत्तिः, मुक्तस्तु कषायादिपरिणामविकलः, शुक्लध्यानमाहात्म्यतस्तेषां समूलमुन्मूलितत्वात् । ततो मुक्त्यवस्थायां कर्म्मबन्धाप्रसङ्गः न च वाच्यम्एवं सतितर्हि निरन्तरं मुक्तिगमनतो भव्यानामुच्छेदप्रसङ्गः, अनन्तानन्तसंख्योपेतत्वात् इह यदनन्तानन्तसंख्योपेतं तत्प्रतिसममेकद्विव्यादिसंख्ययाऽपगच्छदपि न कदाचन निर्लेपी भवति, यथाऽनागतकालः, तथा च अनन्तानन्तसंख्योपेता भव्या इत्यनुच्छेदः, अथ सिद्धा अप्यनन्तास्तेषामपि प्रवाहतोऽनादित्वात्ततः कथं तेषां तावत्संख्याकानां परिमितक्षेत्रेऽवस्थानाविरोधः, उच्यते, अमूर्त्तत्वात् तथा ह्यमूर्त्तानां प्रतिद्रव्यमनन्तानां केवलज्ञानदर्शनानां सम्पातोऽस्ति न च विरोध इति, " छिन्नंमि संसयम्मी जाजरामरणविप्प मुक्केण । सो समणो पव्वइओ अद्भुदुहिं सह खण्डियसएहिं |६२१|| टोका - व्याख्या पूर्ववत्, नवरम अर्द्ध चतुर्थेरिति - सार्द्धं स्त्रिभिः सह खण्डिकशतैरिति । - आव० निगा ६१६ से ६२१ (ख) मंडिकोऽपि जगामाऽथ स्वामिनं संशयच्छिदे । स्वाम्यप्युवाच तं बंधमोक्षयोस्तव संशयः ॥ १३१ ॥ तदसद्बन्धमोक्षौ हि प्रसिद्धौ तत्र चात्मनः । मिथ्यात्वादिकृतः कर्मसंबंधो बंध उच्यते ॥१३२॥ रज्जुबद्ध इव श्वभ्रतिर्यग्गृसुरभूमिषु । दुःखं तेनानुभवति प्राणी परमदारुणम् ॥१३३॥ ज्ञानदर्शनचारित्रप्रमुखैर्हेतुभिस्तु यः । वियोगः कर्मणां ज्ञेयः स मोक्षोऽनन्तशर्मदः ॥ १३४ ॥ अप्यनादिमिथः सिद्धयोगानां जीवकर्मणाम् । ज्ञानादिना स्याद्वियोगोऽग्निना स्वर्णाऽश्मनामिव ॥ १३५॥ इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो मंडिकोऽपि हि । सार्धत्रिशत्या शिष्याणां सहितो व्रतमाददे ||१३६|| त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५ " इसके पश्चात् स्वयं को संशय को नष्ट करने के लिए मंडिक विप्र भगवान् के पास आया। उसने भगवान् को कहा कि—' तुम्हें बंध और मोक्ष के विषय में संशय है । परन्तु बंध और मोक्ष आत्मा को होता है - यह बात प्रसिद्ध है। Jain Education International मिथ्यात्वादि के द्वारा कृतकर्मो का जो सम्बन्ध है वह बंध कहा जाता है । उस बंध के साथ प्राणी रस्सी के साथ बंधे हुए की तरह नरक, तियंच, मनुष्य और देवरूप चार गति में परिभ्रमण करता हुआ प्राणो परम दारुण दुःख का अनुभव करता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्रमुख कर्म का वियोग होता है उसे मोक्ष कहा जाता है : मोक्ष के द्वारा प्राणी को अनन्त सुख की चूंकि जीव और कर्म का परस्पर संयोग अनादि सिद्ध है । देखा जाता है कि अग्नि से सुवर्ण और पाषाण अलग-अलग हो जाते हैं उसी प्रकार ज्ञानादिक से जीव और कर्म का वियोग हो जाता है ।" हेतु के कारण जो उपलब्धि होती है। इस प्रकार के भगवान् के वचनों से उसका संशय नष्ट हो गया । फलस्वरूप ३५० शिष्यों के साथ मंडिक ने भगवान् से पंच महाव्रत रूप दीक्षा ग्रहण की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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