Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 312
________________ वर्धमान जीवन-कोश नोट :-पादो वृक्षस्य भूगतो मूलभागः, तस्येव अप्रकंपतया उपगतम-अवस्थानं यस्य स तथा। -जंबूद्वीपज्ञप्ति-वक्षस्कार ३, सू ७०/वृति पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिस ( गृहीत-अनशन ) व्यक्ति की अप्रकम्प स्थिति होती है। उसे पादोपगत कहा जाता है। पादपो वृक्षः उपशब्दश्चोपमेयोऽपि सादृश्येऽपि दृश्यते। ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम पादपवन्निश्चले। -धर्म संग्रहसटीक, अधि/३ सर्वथा परिस्पन्दवर्जिते चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्ने अनशनभेदे । -पंचाशक टीका-विवरण १६ पादपस्येवोपगमनमस्पन्दतयावस्थानं पादपोपगमनम् भग० श २५/उ ७/टीका आमरण अनशन-प्राप्त साधक, जिसमें पादपवृक्ष की तरह परिस्पदन-कम्पन आदि से सर्वथा रहित कहा जाता है-वह पादपोपगमन अनशन कहा जाता है। .४६ सप्तम मौर्यपुत्र गणधर १ मौर्यपत्र का श्रमण भगवान महावीर के पास आगमन(क) ते पव्वइए सोउं, मोरिअ आगच्छई जिणसगासं । वञ्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६२२॥ मलय टीका-व्याख्या पूर्ववत्, नवरमिह मौर्य अगच्छति जिनसकाशमिति नानात्वम्। ___ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सम्वन्नूसव्वदरिसीण ॥६२३॥ टोका-अस्याअपि सपातनिका व्याख्या पूर्ववत् । किं मन्ने अस्थि देवा उआहु नत्थीत्ति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ।।६२४॥ टीका--किं सन्ति देवा उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो वर्तते, तानि चामूनि वेदपदानि __ "स एष यज्ञायुधी यजमानोऽज्जसा स्वर्गलोकं गच्छती।" त्यादीनि, तथा "अपाम सोमं अमृता अभूम अगमज्योतिर्विदाम देवान किं नूनमस्मातृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतः मत्यस्ये" त्यादीनि xxx ये पुनर्देवास्ते स्वच्छन्दचारिणः कामरूपिणः प्रकृष्टदिव्यप्रभावा इहागमनसामर्थ्यवन्तस्ततः किमितीह नागच्छन्ति येन न दृश्यन्ते इति, तस्मात्ते न सन्त्यस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवदिति x x x देवा अपि हि स्वकृतभोगफलकर्मपर्यन्ते विनश्वराः, किं पुनः शेषर्द्धिसमुदाया इत्यनित्यत्वभावनाप्रतिपादकमिदं वाक्यं न तु देवसत्तानिषेधकमिति, तथा स्वच्छन्दचारिणोऽप्यमी यदिह नागच्छन्ति तत्रेदं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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