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शायद इसके कर्ता प्रादिके विषय में कोई नई बात मालूम हो । परन्तु निराश होना पड़ा। उसमें न तो टीकाकर्त्ताने अपना नाम ही दिया है और न मूलके विषय में ही कुछ लिखा है । अन्तमें इतना ही लिखता है - " इति ढाढसीमुनीनां विरचिता गाथा सम्पूर्णा ।" मालूम नहीं, ये ढाढसी मुनि कौन और कब हुए हैं ? ढाढसी नाम भी बड़ा प्रद्भुत सा है ।
इस ग्रन्थ में काष्ठासंघ, मूलसंघ और नि: पिच्छिक ( माथुर ) संघों का उल्लेख है श्रोर इनमें से अन्तिम माथुर संघकी उत्पत्ति देवसेनसूरिके दर्शनसार में वि० सं० ६५३ के लगभग बतलाई गई है । यदि वह सही है तो यह ग्रन्थ विक्रमकी ग्यारहवीं सदीके पहले का नहीं हो सकता । परन्तु इससे मृतचन्द्र के समय निर्णयमें कोई सहायता नहीं मिल सकती। हां, यदि अमृतचन्द्रने अपने किसी ग्रंथ में उक्त 'संघो को वि' 'आदि गाथा उद्धत गाथाको हीं मेघविजयजीने उनकी समझ लिया हो, तो फिर इससे भी ढाढसी गाथा के बाद १० वीं शताब्दिका प्रमृतचन्द्रको मान सकते हैं ।
( जैन साहित्य और इतिहाससे उद्धत )
मृतचन्द्र के विषय में कुछ नया प्रकाश
अभी हालही रल्हनके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविका 'पज्जुष्णचरिउ ( प्रद्य ुम्नचरित ) नामका अपभ्रंश काव्य प्राप्त हुआ है जो कि बांभणवाड़ा ( सिरोही के पास ) निर्मित हुआ था ।" उस समय वहांका राजा मुहिलवंशी भुल्लण था जो मालवनरेश बल्लालका मांडलिक था और जिसका राज्यकाल विक्रम संवत् १२०० के आस-पास है। इस काव्य में लिखा है कि एक समय मलधारिदेव
१- इस काव्यका विस्तृत परिचय मेरे स्वर्गीय मित्र मोहनलाल दलोचन्द देसाई बी० ए०, एलएल. बी०, अपने 'कुमारपालना समय एक प्रपत्र श काव्य' शीर्षक गुजराती लेखमें दिया है जो 'श्री प्रात्मानन्दजन्मशताब्दि स्मारक ग्रन्थ' में प्रकाशित हुआ है ।
२- मालवे के परमार राजाग्रोंकी वंशावली में 'बल्लाल' का नाम नहीं मिलता। यह किस वंशका था, सो भी पता नहीं । परन्तु 'मालवराज' विशेषल इसके साथ लगा हुआ है । परमार राजा यशोवर्मा के बाद इसका मालवे पर अधिकार रहा है । यशोवर्माका अन्तिम दानपत्र वि० सं० १९९२ का लिखा हुआ मिला है । बल्लालको कुमारपाल सोलंकीने हराया था और कुमारपाल वि० सं० १२०० में गद्दीपर बैठे थे ।
B - ता मलधारिदेउ मुनिमु र पञ्चक्खु धम्मु उबसमु दमु । माहउचंदु प्रासि सुपसिद्धउ, जो लमदम जम- रियमसमिद्धउ ।। तासु सीसु तव तेय-दिवायरु वय-तव-रियम-सील रयणायरु । तक्क- लहरि कोलिय परमउ, वर- बाबरण-पवर पसरिय उ । जासु भुवण दूरंतरु वंकिवि ठिउ पच्छण्णु मयणु श्रासं किवि । श्रमियवंदु लामेरण भडारउ, सो बिहरंतु पत्त वुहसारउ, सरि-सर-णंदरण-वण संछण्णउ, मढ -विहार- जिण भण्वण खष्णउ । भणवाडउ णामें पट्टणु, अरिणरणाह-सेज - दिलवट्टरणु, जो भुजइ प्ररिणखयकालहो, रणधोरियहो सुयहो वल्लाल हो । जासु भिच्छ दुज्जा-मण सल्ल, सत्तिउ गुहिलउत्त, जहि भुल्लणु । तहि संपत्त, मुणी सरु जावहि भव्वुलोड श्राणंद ताहि ।
पत्ता-पर-बाइय-बाया हरु, छम्मू, सुयकेवलिजो पदरक्खुषम्मु । सों जयउ महामुणि श्रमियचंदु, जो मरिण वह कर वह चंदु | मल्लधारिदेव-पय-पोम मसलु, जंगम सरसइ सव्वत्य कुस लु ।